हैं इक वो , पीक जिनको , ख़ून की उल्टी दिखाई दे ।।
यहाॅं मुझको , लहू भी , साॅस या चटनी दिखाई दे ।।
हरा चश्मा पहनने की , मुझे इतनी रही आदत ,
कि हल्दी भी मुझे अब तो , हरी मिर्ची दिखाई दे ।।
मोहब्बत में , मैं तुलसीदास से , कुछ कम नहीं पड़ता ,
कहूॅं कैसे कि नागिन भी , मुझे रस्सी दिखाई दे ?
मैं उसका क़द कुछ ऐसे नापता हूॅं अपनी ऑंखों से ,
कि वो बौनी , मुझे मुझसे , कुछ ऊॅंची ही दिखाई दे ।।
मैं भिड़ जाता हूॅं , अपने से भी ताक़तवर से , जब मुझको ,
कभी ग़ुस्से में , भूखी शेरनी , बकरी दिखाई दे ।।
भरा हो पेट , तो लड्डू भी , मिट्टी का लगे लौंदा ,
रहूॅं भूखा , तो हर गोलाई , इक रोटी दिखाई दे ।।
अमूमन सबको , माशूक़ा में , दिखता है ख़ुदा अपना ,
मुझे क्यों , अपनी महबूबा में , बस लड़की दिखाई दे ?
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
( पीक=पान का लाल थूक / साॅस=टोमेटो केचप ,लाल चटनी / अमूमन=प्रायः )
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