Thursday, July 11, 2024

ग़ज़ल

 हैं इक वो , पीक जिनको , ख़ून की उल्टी दिखाई दे ।।

यहाॅं मुझको , लहू भी , साॅस या चटनी दिखाई दे ।।

हरा चश्मा पहनने की , मुझे इतनी रही आदत ,

कि हल्दी भी मुझे अब तो , हरी मिर्ची दिखाई दे ।।

मोहब्बत में , मैं तुलसीदास से , कुछ कम नहीं पड़ता ,

कहूॅं कैसे कि नागिन भी , मुझे रस्सी दिखाई दे ?

मैं उसका क़द कुछ ऐसे नापता हूॅं अपनी ऑंखों से ,

कि वो बौनी , मुझे मुझसे , कुछ ऊॅंची ही दिखाई दे ।।

मैं भिड़ जाता हूॅं , अपने से भी ताक़तवर से , जब मुझको ,

कभी ग़ुस्से में , भूखी शेरनी , बकरी दिखाई दे ।।

भरा हो पेट , तो लड्डू भी , मिट्टी का लगे लौंदा ,

रहूॅं भूखा , तो हर गोलाई , इक रोटी दिखाई दे ।।

अमूमन सबको , माशूक़ा में , दिखता है ख़ुदा अपना ,

मुझे क्यों , अपनी महबूबा में , बस लड़की दिखाई दे ?

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 

( पीक=पान का लाल थूक / साॅस=टोमेटो केचप ,लाल चटनी / अमूमन=प्रायः )

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