डर है मिट जाऍं न पड़कर सख़्त ग़ुर्बत में ।।
इस क़दर बेकार हैं ; हैं इतनी फ़ुर्सत में ।।
हम मोहब्बत में बने थे , इसमें क्या शक़ है ?
पर मिटे भी हैं तो पड़कर हम मोहब्बत में ।।
सख़्त प्यासे हों तो आता है मज़ा जितना -
पानी पीने में ; न आता है वो शर्बत में ।।
हूॅं तो मैं तेरी मोहब्बत में पड़ा लेकिन ,
देखकर लगता मुझे जैसे हूॅं वहशत में ।।
बा-ख़ुदा मैं कब था खुशबूदार फूलों सा ,
अब महकने लग गया हूॅं तेरी सोहबत में ।।
सच कहूॅं तो मैं था कब लायक तुम्हारे पर ,
तुम लिखे थे रब के हाथों मेरी क़िस्मत में ।।
तब भी भाती थी मुझे तनहाई जब तुम थे ,
अब न तुम तब भी मज़ा क्यों आए ख़ल्वत में ?
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
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