Sunday, July 14, 2024

ग़ज़ल

 


कहा करती हैं जो ऑंखें हमारे लब नहीं कहते ।।

बहुत खुलते हैं लेकिन कोई सूरत सब नहीं कहते ।।

लिखा करते थे ताबड़तोड़ जब लिखना न आता था ,

ग़ज़ल होती है क्या समझे हैं जब से अब नहीं कहते ।।

कहा करते हो तुम बेशक़ हमेशा बात अच्छी ही ,

मगर कहना हो वो जिस वक़्त उसको तब नहीं कहते ।।

कहा करते हैं जो बेढब जिसे देखो उसे बेढब ,

वही आईने से भी ख़ुदको टुक बेढब नहीं कहते ।।

कई हैं अपने पत्थर के सनम को जो ख़ुदा बोलें ,

मगर माॅं-बाप को इक बार अपना रब नहीं कहते ।।

वो तब-तब मान जाते हैं बुरा उनकी बुरी सूरत ,

जिसे हम चौदहवीं के चाॅंद सी जब-जब नहीं कहते ।।

वो कहते हैं कि हम उनको कहें अपना ख़ुदा मुॅंह पर ,

जिन्हें हम दिल में शैतान-ओ-बला कब-कब नहीं कहते ?

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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