कहा करती हैं जो ऑंखें हमारे लब नहीं कहते ।।
बहुत खुलते हैं लेकिन कोई सूरत सब नहीं कहते ।।
लिखा करते थे ताबड़तोड़ जब लिखना न आता था ,
ग़ज़ल होती है क्या समझे हैं जब से अब नहीं कहते ।।
कहा करते हो तुम बेशक़ हमेशा बात अच्छी ही ,
मगर कहना हो वो जिस वक़्त उसको तब नहीं कहते ।।
कहा करते हैं जो बेढब जिसे देखो उसे बेढब ,
वही आईने से भी ख़ुदको टुक बेढब नहीं कहते ।।
कई हैं अपने पत्थर के सनम को जो ख़ुदा बोलें ,
मगर माॅं-बाप को इक बार अपना रब नहीं कहते ।।
वो तब-तब मान जाते हैं बुरा उनकी बुरी सूरत ,
जिसे हम चौदहवीं के चाॅंद सी जब-जब नहीं कहते ।।
वो कहते हैं कि हम उनको कहें अपना ख़ुदा मुॅंह पर ,
जिन्हें हम दिल में शैतान-ओ-बला कब-कब नहीं कहते ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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