पी-पीके ख़म्र मैंने जलाया बहुत जिगर ।।
आना न था क़रार सो आया न उम्र भर ।।
ईमान से वो करते थे जब मुझसे मोहब्बत ,
कहते थे मुझ में ऐब नहीं सिर्फ़ हैं हुनर ।।
रहता था उनकी ऑंख में हैरानगी तो ये ,
मुझ पर कभी न भूलके उनकी पड़ी नज़र ।।
हरगिज़ न वो मिलेंगे बख़ूबी ये था पता ,
जब तक मरा न उनको ढूॅंढता रहा मगर ।।
नश्शे में वह भले ही भले आदमी लगे ,
होशो हवास में वो मुझे सच लगे सुअर ।।
रह-रहके उसके साथ जब उससा ही हो गया ,
तब दी मुझे ये मुझसों ने तफ़्सील से ख़बर ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
( जिगर=कलेजा / ख़म्र=मदिरा / तफ़्सील=विस्तार )
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