वो गर सख़्त ज़ख्मी मेरा दिल न करता ।।
तो पी-पीके मैं ख़ुद को ग़ाफ़िल न करता ।।
जो चेहरा करे उसका उतना उजाला ,
क़सम से कभी माह ए कामिल न करता ।।
हमेशा बनाता वो राई को पर्वत ,
कभी भी किसी ताड़ को तिल न करता ।।
वो कह देता लाइक़ बनूॅं उसके तो क्या ,
मैं उसके लिए ख़ुद को क़ाबिल न करता ?
किसी से मोहब्बत हुई ही कहाॅं थी ,
वगरना मैं क्या उसको हासिल न करता ?
अगर काम का उसके होता न मैं तो ,
मुझे ज़िन्दगी में वो शामिल न करता ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
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