जाने क्यों ? पर बना लिया मैंने ।।
ख़ुदको पत्थर बना लिया मैंने ।।
क्या कहूॅं ? हिर्स में उन्हें अपने ,
पाॅंव से सर बना लिया मैंने ।।
इस क़दर लाज़िमी था सो ख़ुदको ,
गिरवी धर घर बना लिया मैंने ।।
नींद में एक सख़्त पत्थर को ,
नर्म बिस्तर बना लिया मैंने ।।
चाहता था बनूॅं क़लम ही पर ,
ख़ुदको ख़ंजर बना लिया मैंने ।।
उसको पाना था इसलिए ख़ुदको ,
उससे बेहतर बना लिया मैंने ।।
तीर ओ तलवार को मिटा यों ही ,
एक ज़ेवर बना लिया मैंने ।।
जब न इंसाॅं मिले तो साॅंपों को ,
दोस्त अक्सर बना लिया मैंने ।।
एक बेरोज़गार मालिक को ,
अपना नौकर बना लिया मैंने ।।
जल्दबाज़ी में ख़ुद से बहके को ,
अपना रहबर बना लिया मैंने ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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