Monday, August 19, 2024

ग़ज़ल

 











जाने क्यों ? पर बना लिया मैंने ।।

ख़ुदको पत्थर बना लिया मैंने ।।

क्या कहूॅं ? हिर्स में उन्हें अपने ,

पाॅंव से सर बना लिया मैंने ।।

इस क़दर लाज़िमी था सो ख़ुदको ,

गिरवी धर घर बना लिया मैंने ।।

नींद में एक सख़्त पत्थर को ,

नर्म बिस्तर बना लिया मैंने ।।

चाहता था बनूॅं क़लम ही पर ,

ख़ुदको ख़ंजर बना लिया मैंने ।।

उसको पाना था इसलिए ख़ुदको ,

उससे बेहतर बना लिया मैंने ।।

तीर ओ तलवार को मिटा यों ही ,

एक ज़ेवर बना लिया मैंने ।।

जब न इंसाॅं मिले तो साॅंपों को ,

दोस्त अक्सर बना लिया मैंने ।।

एक बेरोज़गार मालिक को ,

अपना नौकर बना लिया मैंने ।।

जल्दबाज़ी में ख़ुद से बहके को ,

अपना रहबर बना लिया मैंने ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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