कभी मैं ऊगता ; ढलता दिखाई देता हूॅं ।।
कभी थमा भी फिसलता दिखाई देता हूॅं।।
कुछ इस क़दर है मुझे भागदौड़ की आदत ,
खड़ा हुआ भी मैं चलता दिखाई देता हूॅं ।।
बची न मुझमें कहीं आग अब तो राख हूॅं मैं ,
भले ही शक्ल से जलता दिखाई देता हूॅं ।।
चला गया वो मेरा हाथ छोड़कर जबसे ,
मैं तबसे हाथ ही मलता दिखाई देता हूॅं ।।
मैं जल रहा हूॅं , मैं पत्थर ही हो रहा हूॅं पर ,
सभी को मोम पिघलता दिखाई देता हूॅं ।।
हूॅं जिनकी ऑंख का काॅंटा न जाने क्यों सबको ,
उन्हीं के दिल में मैं पलता दिखाई देता हूॅं ।।
मैं मारा-मारा फिरूॅं लेकिन उनको खा-पीकर ,
ख़ुशी से रोज़ टहलता दिखाई देता हूॅं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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