Friday, August 9, 2024

ग़ज़ल

 











कभी मैं ऊगता ; ढलता दिखाई देता हूॅं ।।

कभी थमा भी फिसलता दिखाई देता हूॅं।।

कुछ इस क़दर है मुझे भागदौड़ की आदत ,

खड़ा हुआ भी मैं चलता दिखाई देता हूॅं ।।

बची न मुझमें कहीं आग अब तो राख हूॅं मैं ,

भले ही शक्ल से जलता दिखाई देता हूॅं ।।

चला गया वो मेरा हाथ छोड़कर जबसे ,

मैं तबसे हाथ ही मलता दिखाई देता हूॅं ।।

मैं जल रहा हूॅं , मैं पत्थर ही हो रहा हूॅं पर , 

सभी को मोम पिघलता दिखाई देता हूॅं ।।

हूॅं जिनकी ऑंख का काॅंटा न जाने क्यों सबको ,

उन्हीं के दिल में मैं पलता दिखाई देता हूॅं ।।

मैं मारा-मारा फिरूॅं लेकिन उनको खा-पीकर ,

ख़ुशी से रोज़ टहलता दिखाई देता हूॅं ।।

-डॉ. हीरालाल प्रजापति

No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...