Friday, May 10, 2024

ग़ज़ल

इक को कोलाहल ने इक को चुप्पियों ने मार डाला ।।

इक मरा भजनों से इक को गालियों ने मार डाला ।।

हैं कई जो पूर्णिमा को चंद्र किरणों से मरे सच ,

कुछ को प्रातः काल की रवि रश्मियों ने मार डाला ।।

लोग प्रायः बर्छियों से होते हैं घायल सुना था ,

पर उसे रक्तिम गुलाबी पत्तियों ने मार डाला ।।

पृथ्वीवासी इक गगन प्रेमी था इक पाताल पूजक ,

पर्वतों ने इक को , इक को खाइयों ने मार डाला ।।

एक बॅंटवारे को लेकर गाॅंव के कुछ भाइयों को ,

उनके अपने ही सगे कुछ भाइयों ने मार डाला ।।

साॅंप-बिच्छू पालने वाले को इक दिन जाने क्यों पर ,

घोर अचरज बाग की कुछ तितलियों ने मार डाला ।।

मात्र इक बंदर के बहकावे में आकर दिन दहाड़े ,

इक महावत को बहुत से हाथियों ने मार डाला ।।

-डाॅ. हीरालाल प्रजापति 


6 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर

Sudha Devrani said...

बहुत ही लाजवाब... सार्थक गजल
वाह!!!

आलोक सिन्हा said...

सुन्दर

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

सुशील कुमार जोशी जी,
बहुत बहुत धन्यवाद 🙏

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

सुधा देवरानी जी ,
बहुत बहुत शुक्रिया 🙏

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

अशोक सिन्हा जी,
बहुत बहुत धन्यवाद 🙏

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...