ज्यों ही हम ऊॅंची किसी मीनार से कूदें कि त्यों ,
ये सकल संसार बढ़-बढ़ लोकता है किसलिए ?
रेल की पटरी पे ज्यों ही अपना सिर रखते हैं त्यों ,
डाॅंटकर कोई न कोई टोकता है किसलिए ?
यों गहन दुख , घोर कठिनाई में जीवन आ फॅंसा ।।
जैसे दलदल में कोई हाथी समूचा जा धॅंसा ।।
घर लुटा , कपड़े फटे , रोटी छिनी फिर भी हमें ,
विष चबाने से भला जग रोकता है किसलिए ?
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
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