जोड़कर हाथ गिड़गिड़ाने पर ,
सचमुच इसरार पे भी तब उसने ;
अपने गालों तलक को छूने का ,
मुझको मौक़ा दिया था कब उसने ?
मैं न रूठा , न मैं तुनुक बिगड़ा ,
जाने इक रोज़ क्या हुआ लफड़ा ,
आके हौले से मेरे होंठों पर ,
रख दिए थे ख़ुद अपने लब उसने !!
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
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