इक को कोलाहल ने इक को चुप्पियों ने मार डाला ।।
इक मरा भजनों से इक को गालियों ने मार डाला ।।
हैं कई जो पूर्णिमा को चंद्र किरणों से मरे सच ,
कुछ को प्रातः काल की रवि रश्मियों ने मार डाला ।।
लोग प्रायः बर्छियों से होते हैं घायल सुना था ,
पर उसे रक्तिम गुलाबी पत्तियों ने मार डाला ।।
पृथ्वीवासी इक गगन प्रेमी था इक पाताल पूजक ,
पर्वतों ने इक को , इक को खाइयों ने मार डाला ।।
एक बॅंटवारे को लेकर गाॅंव के कुछ भाइयों को ,
उनके अपने ही सगे कुछ भाइयों ने मार डाला ।।
साॅंप-बिच्छू पालने वाले को इक दिन जाने क्यों पर ,
घोर अचरज बाग की कुछ तितलियों ने मार डाला ।।
मात्र इक बंदर के बहकावे में आकर दिन दहाड़े ,
इक महावत को बहुत से हाथियों ने मार डाला ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
6 comments:
सुन्दर
बहुत ही लाजवाब... सार्थक गजल
वाह!!!
सुन्दर
सुशील कुमार जोशी जी,
बहुत बहुत धन्यवाद 🙏
सुधा देवरानी जी ,
बहुत बहुत शुक्रिया 🙏
अशोक सिन्हा जी,
बहुत बहुत धन्यवाद 🙏
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