जब देखो तब हाथ तंग
जब देखो खींसा तब खाली ॥
तुम ही बोलो हमको कैसी
धनतेरस औ’’ दीवाली ?
सट्टा ,जुआ
,लॉटरी हमने सब अजमाकर देख लिया ,
धनिकों में फिर फिर
धन पहुँचा कंगलन फिर फिर कंगाली ॥
मालिक लोग चरागां करते
फिरें ख़ुशी का हमको क्या ?
मजदूरों की क़िस्मत
ख़ालिस ग़म की करना हम्माली ॥
गुड़ तक के लाले हैं
कैसे बाँटें खील-बताशे हम ?
आज के दिन भी गुड़-गुड़
करता पेट ये अपनी बदहाली ॥
दीप,
तेल, बाती,
माचिस, फुलझड़ी,
पटाखे लो उधार ,
किन्तु मनाओ दीवाली
ये कैसी परंपरा साली ?
संवदिये ने बना दिया
ऊँचा पहाड़ इक राई का ,
दीप जलाने वाले ने
यों आतिशबाज़ी कर डाली ॥
सदियों सदी पुरानी
रीतें मूल लापता है जिनका ,
ये कवि की करतूत है
जो कर बैठा मुख को करमाली ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
No comments:
Post a Comment