Monday, November 11, 2013

109 : ग़ज़ल - इतनी आबादी न थी



इतनी आबादी न थी तब आदमी था क़ीमती रे ।।
अब तो बकरे से भी सस्ती आदमी की ज़िंदगी रे ।।1।।
क्यों किये जाता है पैदा आदमी बच्चों पे बच्चे ,
पालना मुश्किल है जब महँगी में इक औलाद भी रे ।।2।।
अस्तबल में देखिए कूलर लगे , ए.सी. लगे सच ,
और घर में फुँँकता गर्मी में ग़रीब आम आदमी रे ।।3।।
इक अनार और सैकड़ों बीमार हों कुछ इस तरह की ,
आजकल सचमुच ही ज़ालिम चीज़ है ये नौकरी रे ।।4।।
पहले ख़ातिरदारी रिश्तेदारों की होती थी रब सी ,
अब तो मेहमानों से सबको जैसे चिढ़ सी हो गयी रे ।।5।।
यूँ तो हैं पहचान के इस शह्र में मेरे हज़ारों ,
सच कहूँ लगता नहीं अपना मुझे एकाध भी रे ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

3 comments:

शिव राज शर्मा said...

सुन्दर अभिव्यक्ति

शिव राज शर्मा said...

सुन्दर अभिव्यक्ति

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Shiv Raj Sharma जी !

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