Saturday, November 2, 2013

108 : ग़ज़ल - दुश्मन का देख ठाठ



दुश्मन का देख ठाठ-बाट जल रहा हूँ मैं ॥
वो अर्श पर उड़े ज़मीं पे चल रहा हूँ मैं ॥
गिरते नहीं गिराए से भी लोग जिस जगह ,
उस खुरदुरी ज़मीन पर फिसल रहा हूँ मैं ॥
जब तक लचक थी हड्डियों में मैं नहीं झुका ,
अब सख़्त हैं तो झुकने को मचल रहा हूँ मैं ॥
हालात ने कुछ इस तरह बदल दिया मुझे ,
हालात अपने आजकल बदल रहा हूँ मैं ॥
बेहाल हूँ मैं अपने दर्द से यहाँ-वहाँ ,
मारे खुशी के यों नहीं उछल रहा हूँ मैं ॥
औंधे पड़ों को और लात मारता जहाँ,
खा-खा उसी की लातें तो सँभल रहा हूँ मैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

3 comments:

Unknown said...

लाजवाब !!!

जब तक लचक थी हड्डियों में मैं नहीं झुका ,
अब सख़्त हैं तो झुकने को मचल रहा हूँ मैं ॥

Unknown said...



जब तक लचक थी हड्डियों में मैं नहीं झुका ,
अब सख़्त हैं तो झुकने को मचल रहा हूँ मैं ॥ लाजवाब

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Lekhika "Pari m Shlok' जी !

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