Friday, August 30, 2013

मुक्तक : 323 - मैं वीरानों का मुरीद


मैं वीरानों का मुरीद सचमुच अलबेला हूँ ॥
बाहर दिखता भीड़भाड़ हूँ झुण्ड हूँ मेला हूँ ॥
महफ़िल में शिर्कत तो रस्मन करनी पड़ती है ,
अंदर तनहा ,धुर एकाकी निपट अकेला हूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

shishirkumar said...

'Andar tanha ekaki dhur nipat Akela hoon' -- Bas yah line jhakjhorne ke liye kafee hai.
Dhanyabad Dr sahab!

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

बहुत बहुत धन्यवाद ! shishirkumar जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...