Thursday, August 29, 2013

103 : ग़ज़ल - ग़लतियाँ हमसे हुईं


ग़लतियाँ हमसे हुईं क्या - क्या , कहाँ रे ?
सब नतीजों पर गिरींं जो बिजलियाँ रे ।।1।।
हमने नंगे रह निभाया फ़र्ज़ तब भी ,
पड़ रही थींं जब जमाती सर्दियाँ रे ।।2।।
घर तो अपना ही था फूँका हमने लेकिन ,
हो गईं क्यों राख जलकर बस्तियाँ रे।।3।।
हमने की थीं कोशिशें जी-जान से ही ,
जाने क्यों हाथों लगीं नाकामियाँ रे।।4।।
शौक़ था पीने का लेकिन यों नहीं था ,
मंदिरो-मस्जिद में ली हों चुस्कियाँ रे ।।5।।
मुफ़्त दुनिया ने किया था हमको रुस्वा ,
कुछ नहीं था उनके मेरे दरमियाँ रे।।6।।
हम नहीं होते हैं उसमें पास फिर भी ,
ज़िंदगी ले इम्तिहाँ पर इम्तिहाँ रे।।7।।
जबकि हम बैठे नहीं चलते रहे हैं ,
पर वहीं हैं आज तक कल थे जहाँ रे।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

Unknown said...

बहुत खूब ... उम्दा

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Lekhika 'Pari M Shlok' जी !

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