ग़लतियाँ हमसे हुईं क्या - क्या , कहाँ रे ?
सब नतीजों पर गिरींं जो बिजलियाँ रे ।।1।।
हमने नंगे रह निभाया फ़र्ज़ तब भी ,
पड़ रही थींं जब जमाती
सर्दियाँ रे ।।2।।
घर तो अपना ही था फूँका हमने लेकिन ,
हो गईं क्यों राख जलकर
बस्तियाँ रे।।3।।
हमने की थीं कोशिशें
जी-जान से ही ,
जाने क्यों हाथों लगीं
नाकामियाँ रे।।4।।
शौक़ था पीने का लेकिन
यों नहीं था ,
मंदिरो-मस्जिद में
ली हों चुस्कियाँ रे ।।5।।
मुफ़्त दुनिया ने किया था हमको रुस्वा ,
कुछ नहीं था उनके मेरे दरमियाँ रे।।6।।
हम नहीं होते हैं उसमें पास फिर भी ,
ज़िंदगी ले इम्तिहाँ
पर इम्तिहाँ रे।।7।।
जबकि हम बैठे नहीं
चलते रहे हैं ,
पर वहीं हैं आज तक
कल थे जहाँ रे।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
बहुत खूब ... उम्दा
धन्यवाद ! Lekhika 'Pari M Shlok' जी !
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