Saturday, August 10, 2013

100 : ग़ज़ल - जितना भी हैं कमाते


जितना भी हैं कमाते ,सब क़र्ज़ को चुकाने ।।
रक्खे हैं ख़ुद को ज़िंदा ,बस फ़र्ज़ ही निभाने ।।1।।
हम जानते हैं पीना ,इक हद तलक सही है ,
पर इस क़दर हैं पीते ,अपना जिगर जलाने ।।2।।
उनने न जाने कैसा ,फूँका भड़क उठी वो ,
वैसे वो आए थे सच ,उस आग को बुझाने ।।3।।
मत मान तू बुरा जो ,मैं दिल नहीं दिखाता ,
अपनों से भी तो पड़ते हैं ,राज़ कुछ छिपाने ।।4।।
उसके लिए भी थोड़ा ,सा वक़्त छोड़ रखना ,
बहुत उम्र अभी पड़ी है ,खाने भी औ' कमाने ।।5।।
बेदर्द ने यूँ दिल को ,कुचला ,मरोड़ा ,तोड़ा ,
क़ाबिल न छोड़ा दोबाराऔर से लगाने ।।6।।
है मुफ़्त में भी शायद ,अपनी तो जान महँगी ,
आया न कोई मरते ,थे जब इसे बचाने ।।7।।
सच ही वो जानी दुश्मन ,इतना है खूबसूरत ,
जी मचले उसको अपना ,तो दोस्त ही बनाने ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

4 comments:

Guzarish said...

आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [12.08.2013]
चर्चामंच 1335 पर
कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
सादर
सरिता भाटिया

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

बहुत बहुत धन्यवाद ! सरिता भाटिया जी !

Vaanbhatt said...

चुनिन्दा अशरार...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Vaanbhatt जी !

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