Thursday, August 15, 2013

मुक्तक : 309 - मुफ़्लिसी में अपार


मुफ़्लिसी में अपार दौलतो-दफ़ीना हो ॥
बाढ़ से जो लगा दे पार वो सफ़ीना हो ॥
धुप्प अँधेरों में इक मशालची हो, इक सूरज,
कब से इस बंद दिल का तुम धड़कता सीना हो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शुक्रवार (16-08-2013) को बेईमान काटते हैं चाँदी:चर्चा मंच 1338 ....शुक्रवार... में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी ! मेरी रचना को अपनी चर्चा में शामिल करने के लिए ।

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...