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Saturday, August 31, 2013
Friday, August 30, 2013
मुक्तक : 323 - मैं वीरानों का मुरीद
मैं वीरानों
का मुरीद सचमुच अलबेला हूँ ॥
बाहर दिखता भीड़भाड़
हूँ झुण्ड हूँ मेला हूँ ॥
महफ़िल में शिर्कत तो रस्मन करनी पड़ती है ,
अंदर तनहा ,धुर एकाकी , निपट अकेला हूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, August 29, 2013
103 : ग़ज़ल - ग़लतियाँ हमसे हुईं
ग़लतियाँ हमसे हुईं क्या - क्या , कहाँ रे ?
सब नतीजों पर गिरींं जो बिजलियाँ रे ।।1।।
हमने नंगे रह निभाया फ़र्ज़ तब भी ,
पड़ रही थींं जब जमाती
सर्दियाँ रे ।।2।।
घर तो अपना ही था फूँका हमने लेकिन ,
हो गईं क्यों राख जलकर
बस्तियाँ रे।।3।।
हमने की थीं कोशिशें
जी-जान से ही ,
जाने क्यों हाथों लगीं
नाकामियाँ रे।।4।।
शौक़ था पीने का लेकिन
यों नहीं था ,
मंदिरो-मस्जिद में
ली हों चुस्कियाँ रे ।।5।।
मुफ़्त दुनिया ने किया था हमको रुस्वा ,
कुछ नहीं था उनके मेरे दरमियाँ रे।।6।।
हम नहीं होते हैं उसमें पास फिर भी ,
ज़िंदगी ले इम्तिहाँ
पर इम्तिहाँ रे।।7।।
जबकि हम बैठे नहीं
चलते रहे हैं ,
पर वहीं हैं आज तक
कल थे जहाँ रे।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, August 28, 2013
102 : ग़ज़ल - ऐसा नहीं कि हमको
ऐसा नहीं कि हमको आता नहीं लगाना ।।
पर चूक-चूक जाए है आज ही निशाना ।।1।।
नादाँँ अगर न होते तो बद को बद न कहते ,
अब किस तरह मनाएँ नाराज़ है ज़माना ?2।।
जब तक न की थी हमने ‘हाँ 'वो मना रहे थे ,
तैयार देख हमको करने लगे बहाना ।।3।।
इतनी दफ़्आ हम उनसे सच जैसा झूठ बोले ,
अंजाम आज का सब सच उसने झूठ माना ।।4।
इक बार आज़माइश हमने न की है उनकी ,
जब जब भी उनको परखा पाया वही पुराना ।।5।।
महफ़िल में अपनी-अपनी कहने में सब लगे हैं ,
सुनने न कोई खाली कहने से क्या फ़साना ?6।।
इस फ़िक्र में कि अपना क्या होगा ज़िंदगी में ,
हम भूल ही चुके हैं क्या हँसना क्या हँसाना ?7।।
कहता है हिज्र में ही रहता है प्यार ज़िंदा ,
महबूब मुझसे शादी को इसलिए न माना ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, August 27, 2013
मुक्तक : 322 - जिसको थी तमन्ना
जिसको थी तमन्ना मेरी उसको न मिल सका ॥
लेकिन मैं उसके दिल से उम्र भर न हिल सका ॥
मैं भी न उससे रहके दूर हँस सका कभी ,
वो भी न मेरे हिज्र में मुरझा के खिल सका ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, August 26, 2013
Sunday, August 25, 2013
101 : ग़ज़ल - हूँ बुरा तो मुझे
हूँ बुरा तो मुझे बुरा बोलो ।।
ख़ूब मिर्ची-नमक लगा बोलो ।।1।।
जो कहा था वो कर दिखाया है ,
मुझको वादे से मत फिरा बोलो ।।2।।
चुप हो तौहीन जो सहन कर लूँ ,
मुझको बेशर्म-बेहया बोलो ।।3।।
उनको सर्दी की धूप बोलो तो ,
मुझको गर्मी की छाँव सा बोलो ।।4।।
किसको बरबादियों की दूँ तोहमत ,
अपने हाथों न पर मिटा बोलो ।।5।।
गर मैं बोलूँ तो समझो रोता हूँ ,
मेरी चुप्पी को क़हक़हा बोलो ।।6।।
ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं जैसी ,
उसको ज़िंदाँ कहो , क़ज़ा बोलो ।।7।।
हूँ नज़रबंद सा मैं मुद्दत से ,
कोई पूछे तो मर गया बोलो ।।8।।
ख़ूब मिर्ची-नमक लगा बोलो ।।1।।
जो कहा था वो कर दिखाया है ,
मुझको वादे से मत फिरा बोलो ।।2।।
चुप हो तौहीन जो सहन कर लूँ ,
मुझको बेशर्म-बेहया बोलो ।।3।।
उनको सर्दी की धूप बोलो तो ,
मुझको गर्मी की छाँव सा बोलो ।।4।।
किसको बरबादियों की दूँ तोहमत ,
अपने हाथों न पर मिटा बोलो ।।5।।
गर मैं बोलूँ तो समझो रोता हूँ ,
मेरी चुप्पी को क़हक़हा बोलो ।।6।।
ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं जैसी ,
उसको ज़िंदाँ कहो , क़ज़ा बोलो ।।7।।
हूँ नज़रबंद सा मैं मुद्दत से ,
कोई पूछे तो मर गया बोलो ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, August 24, 2013
Friday, August 23, 2013
Thursday, August 22, 2013
मुक्तक : 318 - ना परायों से न
ना परायों से न अपनों
से न ख़ुद से डरना ॥
जब भी इस राह पे पाँव अपने उठाकर धरना ॥
जब ख़ुदा ही है , है जब रब तो डर के छुप के क्यों ,
इश्क़ बाक़ाइदा कर कर
के मुनादी करना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, August 21, 2013
मुक्तक : 317 - सच्चाई-हक़ीक़त
सच्चाई-हक़ीक़त से मुँह
को फेर-मोड़कर ॥
हर फ़र्ज़-ज़िम्मेदारी
से रिश्ते ही तोड़कर ॥
सालों से लाज़मी थी
इक तवील नींद सो ,
आँखें ही मूँद लीं
हरेक फ़िक्र छोडकर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
रक्षाबंधन
रक्षाबंधन
सूरत के
हिसाब से वह
चौदहवीं का
चाँद नहीं बल्कि
प्रभात का
हेमद्रावक सूर्य है
रंग उसका
स्वर्णिम नहीं प्लेटिनमीय है
सर्वांग
ढाँप रख सकने में समर्थ
ढीले ढाले
अपारदर्शी वस्त्र धारण रखने के बावजूद भी
जिसकी
देहयष्टि के आगे पानी भर रही हों
ज़ीरो फ़िगर
वाली तमाम फ़िल्मी सेक्स-सिंबल हीरोइने
जिन्हे
देखकर आदमी खोने लगता है
हनीमून के
ख्वाबों में
और तुम
मुझसे कह रहे हो
क्योंकि
उसका कोई भाई नहीं है
क्योंकि
मेरी कोई बहन नहीं है
बन जाऊँ
उसका भाई
नहीं मित्र
! कदापि नहीं !
कह दो उसे –
रक्षाबंधन
के दिन
बिना राखी
के भी मेरी सूनी कलाई
सुंदर लगती
है ॥
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
Tuesday, August 20, 2013
मुक्तक : 316 - बर्फ़ानी काली-रात
बर्फ़ानी काली-रात दुपहरी
का आफ़्ताब ॥
घनघोर अमावस में ऊग जाए माहताब ॥
दीवाने का हर्फ़-हर्फ़ लफ़्ज़-लफ़्ज़ हो सच बात,
चेहरे से इक ज़रा सा तू उठा दे गर नक़ाब ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, August 19, 2013
मुक्तक : 314 - जाता नहीं मैं
जाता नहीं मैं भूलकर
भी अब तो वहाँ पे ॥
आती है तेरी बेपनाह याद जहाँ पे ॥
आबाद कैसे फिर मैं वीराँ दिल करूँ बता ?
फिर से बसाऊँ बस्ती मोहब्बत की कहाँ पे ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, August 18, 2013
मुक्तक : 313 - उनके मुख को मुख
उनके मुख को मुख नहीं
बस , लिखते रहे कँवल ॥
ख़्वाब ही बुनते रहे
बस , कहते रहे ग़ज़ल ॥
लेने वाला ले उड़ा जब , उनको
पैदल चल ,
हाथ हिलाते रह गये हम
बस दिल मसल-मसल ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, August 17, 2013
मुक्तक : 311 - आँखों के बाद भी
आँखों के बाद भी रहे मंज़र से दूर हम ॥
अल्लाह-ख़ुदा-रब-वली-ईश्वर
से दूर हम ॥
किस बात से ख़फ़ा थे कि हम मुँह बिसूर के ,
होटल में रहे ग़ैर के
निज घर से दूर हम ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, August 16, 2013
Thursday, August 15, 2013
मुक्तक : 309 - मुफ़्लिसी में अपार
मुफ़्लिसी में अपार दौलतो-दफ़ीना
हो ॥
बाढ़ से जो लगा दे पार
वो सफ़ीना हो ॥
धुप्प अँधेरों में
इक मशालची हो, इक सूरज,
कब से इस बंद दिल का तुम धड़कता सीना हो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
जिस तरह से.................
जिस तरह से पूजो देवी-देवता
,
ठीक यों उनको भी आदृत कीजिये ॥
ठीक यों उनको भी आदृत कीजिये ॥
गीत गाओ रात-दिन
स्वातंत्र्य के ,
पर शहीदों को न विस्मृत कीजिये ॥
पर शहीदों को न विस्मृत कीजिये ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Wednesday, August 14, 2013
मुक्तक : 307 - उसको नुक़्साँ नहीं
उसको नुक़्साँ नहीं
है सिर्फ़ नफ़ा है मुझसे ।।
इतने सालों में
मगर पहली दफ़ा है मुझसे ।।
देख मुझको चहकने ,झूमने , हँसने वाला ,
सख़्त हैराँ हूँ आज सख़्त ख़फ़ा है मुझसे ।।
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Tuesday, August 13, 2013
मुक्तक : 306 - मुझे बर्बाद करने
मुझे बर्बाद करने में न तुम कोई कसर रखना ॥
अगर बच जाऊँ खाने में मिलाकर के ज़हर रखना ॥
अगर मिलती हैं इससे
ही तुम्हें खुशियाँ तो हाज़िर हूँ ,
मगर मर जाऊँ तो मैयत
पे दो गुल , दो अगर रखना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, August 12, 2013
Sunday, August 11, 2013
मुक्तक : 304 - सुई के रूप मेंं
सुई के रूप में घातक कटार-खंज़र था ॥
वो कोई केंचुआ नहीं विशाल अजगर था ॥
तहों में अपनी वो रखता था डुबोकर सब कुछ ,
तहों में अपनी वो रखता था डुबोकर सब कुछ ,
वो खड्ड ; खड्ड नहीं था महासमंदर था ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, August 10, 2013
100 : ग़ज़ल - जितना भी हैं कमाते
जितना भी हैं कमाते ,सब क़र्ज़ को चुकाने ।।
रक्खे हैं ख़ुद को ज़िंदा ,बस फ़र्ज़ ही निभाने ।।1।।
हम जानते हैं पीना ,इक हद तलक सही है ,
पर इस क़दर हैं पीते ,अपना जिगर जलाने ।।2।।
उनने न जाने कैसा ,फूँका भड़क उठी वो ,
वैसे वो आए थे सच ,उस आग को बुझाने ।।3।।
मत मान तू बुरा जो ,मैं दिल नहीं दिखाता ,
अपनों से भी तो पड़ते हैं ,राज़ कुछ छिपाने ।।4।।
उसके लिए भी थोड़ा ,सा वक़्त छोड़ रखना ,
बहुत उम्र अभी पड़ी है ,खाने भी औ' कमाने ।।5।।
बेदर्द ने यूँ दिल को ,कुचला ,मरोड़ा ,तोड़ा ,
क़ाबिल न छोड़ा दोबाराऔर से लगाने ।।6।।
है मुफ़्त में भी शायद ,अपनी तो जान महँगी ,
आया न कोई मरते ,थे जब इसे बचाने ।।7।।
सच ही वो जानी दुश्मन ,इतना है खूबसूरत ,
जी मचले उसको अपना ,तो दोस्त ही बनाने ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
रक्खे हैं ख़ुद को ज़िंदा ,बस फ़र्ज़ ही निभाने ।।1।।
हम जानते हैं पीना ,इक हद तलक सही है ,
पर इस क़दर हैं पीते ,अपना जिगर जलाने ।।2।।
उनने न जाने कैसा ,फूँका भड़क उठी वो ,
वैसे वो आए थे सच ,उस आग को बुझाने ।।3।।
मत मान तू बुरा जो ,मैं दिल नहीं दिखाता ,
अपनों से भी तो पड़ते हैं ,राज़ कुछ छिपाने ।।4।।
उसके लिए भी थोड़ा ,सा वक़्त छोड़ रखना ,
बहुत उम्र अभी पड़ी है ,खाने भी औ' कमाने ।।5।।
बेदर्द ने यूँ दिल को ,कुचला ,मरोड़ा ,तोड़ा ,
क़ाबिल न छोड़ा दोबाराऔर से लगाने ।।6।।
है मुफ़्त में भी शायद ,अपनी तो जान महँगी ,
आया न कोई मरते ,थे जब इसे बचाने ।।7।।
सच ही वो जानी दुश्मन ,इतना है खूबसूरत ,
जी मचले उसको अपना ,तो दोस्त ही बनाने ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, August 9, 2013
मुक्तक : 303 - बेशक़ ही उसका
बेशक़ ही उसका जिस्मे-पुरकशिश है बेगुनाह ।।
लेकिन है हुस्न कमसिनों के दिल की क़त्लगाह ।।
अंधा भी उसके दीद ही को चाहता है आँख ,
जो देखे राह चलता रुक के भरता सर्द-आह ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
99 : ग़ज़ल - आजकल बिस्तर पे है
आज कल बिस्तर पे है आराम
ही आराम है ।।
इंतिज़ारे मर्ग उसे बस दूसरा
क्या काम है ?1।।
छोड़ दो पीना कहें सब छोड़
दो पीना मगर ,
ये न पूछें वो गटकता जाम
पर क्यों जाम है ?2।।
यों तमन्नाएँ तो उसके दिल में हैं लाखों मगर ,
जो है उसका हाल वो बस एक
का अंजाम है ।।3।।
क़ाबिले ज़िक्र उसने ऐसा काम कब कोई किया ,
फिर उसे ये मिल रहा किस
बात का इन्आम है ?4।।
गर करो इंसाफ़ तो फिर छोड़
दो इस बात को ,
आदमी वह कौन है ? कुछ
ख़ास है या आम है ।।5।।
जलते रेगिस्तान में पानी का रोना मत मचा ,
इस सफ़र में बूँद भी मटका
बराबर जाम है ।।6।।
प्यास मै के एक क़तरे की भी होती सराब सी ,
आदमी पी-पी और उलटा होता
तश्नाकाम है ।।7।।
लोग डर डर के इबादत बंदगी
करते वहाँ ,
क्या ख़ुदा गुंडा है दहशतगर्द
उनका राम है ?8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, August 8, 2013
मुक्तक : 302 - न थे हम जिनके
न थे हम जिनके कुछ
हमको वो अपना सब समझते थे ॥
अज़ीमुश्शान अलग इंसाँ मगर वो कब समझते थे ?
क़सम रब की किया करते
थे जब हमसे मोहब्बत वो ,
हमें वो मज़्हब-ओ-ईमाँँ क्या अपना रब समझते थे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, August 7, 2013
मुक्तक : 301 - तेरे चेहरे
तेरे चेहरे सा न दूजा चौदवीं का माहताब ॥
ढूँढ क्या सकेगा कोई लेके हाथ आफ़्ताब ?
तुझसी नाज़नीन तुझसी बेहतरीन महजबीन ,
तेरे आगे जन्नतों की हूरें भी हैं लाजवाब ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, August 6, 2013
मुक्तक : 300 - फ़िक्र का अड्डा
फ़िक्र का अड्डा बेचैनी
का ठाँव जमा था ॥
ग़म की बस्ती दुःख का
पूरा गाँव जमा था ॥
उस दिन से ही मची थी
मुझमें अफ़रा-तफ़री ,
जिस दिन मेरे दिल में
इश्क़ का पाँव जमा था ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, August 5, 2013
मुक्तक : 299 - न ग़म होता तो
न ग़म होता तो क़ीमत कुछ नहीं होती मसर्रत की ॥
अगर होती न नफ़्रत क्या वक़्अत होती मोहब्बत की ॥
मयस्सर होता सब सामाँ जो आसानी से ख़्वाबों का ,
ज़रूरत फिर तो रब की
भी न रह जाती इबादत की ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
