यूँ ही सा देखने में है
वो छोटा सा बड़ा इंसाँ ॥
सभी को बैठने कहता है
ख़ुद रहकर खड़ा इंसाँ ॥
जहाँ सब लोग उखड़ जाते
हैं पत्ते-डाल से , जड़ से ,
वो टस से मस नहीं होता
पहाड़ों सा अड़ा इंसाँ ॥
वो अंदर से है मक्खन से
मुलायम आज़मा लेना ,
यों दिखता है वो ऊपर नारियल
जैसा कड़ा इंसाँ ॥
नहीं मिलता कहीं दो घूँट
जब पानी मरुस्थल में ,
वहाँ ले आ पहुँचता है
वो पानी का घड़ा इंसाँ ॥
जो सोता बेचकर घोड़े वो
उठ जाता है बाँगों से ,
नहीं उठता है आँखें खोलकर
लेटा , पड़ा इंसाँ ॥
यों जुड़ता है किसी से
जैसे उसका ही वो टुकड़ा हो ,
क़रीने से अँगूठी में नगीने
सा जड़ा इंसाँ ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
6 comments:
धन्यवाद ! मयंक जी !
अनुपम .....
धन्यवाद ! Onkar जी !
धन्यवाद ! सदा जी !
सुन्दर रचना...
धन्यवाद ! Vaanbhatt जी !
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