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Monday, December 31, 2018
Sunday, December 23, 2018
Sunday, December 16, 2018
ग़ज़ल : 270 - फ़ित्रत
हमने अजीब ही कुछ फ़ित्रत है पायी यारों ।।
हर बात धीरे-धीरे-धीरे ही भायी यारों ।।
उस तक पलक झपकते हम मीलों दूर पहुँचे ,
वह दो क़दम भी हम तक बरसों न आयी यारों ।।
उसको तो मौत ने भी ख़ुशियाँ ही ला के बाँटीं ,
हमको तो ज़िंदगी भी बस ग़म ही लायी यारों ।।
भूखे रहे मगर हम इतना सुकूँ है हमने ,
औरों की छीनकर इक रोटी न खायी यारों ।।
बदली समंदरों पर जाकर बरसने वाली ,
हैराँ हूँ आज रेगिस्तानों पे छायी यारों ।।
ख़ुश हूँ कि ग़ुस्लख़ाने में आज उसने मेरी ,
दिल से ग़ज़ल तरन्नुम में गुनगुनायी यारों ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, December 14, 2018
Thursday, December 6, 2018
Friday, November 23, 2018
कविता : नास्तिकता क्यों ?
धर्मभीरु भर घृणा से करते हैं आपस में बत ।
धर्म से च्युत ईश्वर से सर्वथा हूँँ मैं विरत ।।
पूछते रहते हैं मैं क्यों नास्तिक हूँँ तो सुनो ।
पूर्णत: ध्यानस्थ होकर तथ्यत: सर्वस गुनो ।।
किंतु यह भी जान लो मैं यह कभी कहता नहीं ।
वह जिसे भगवान कहते सब जगह रहता नहीं ।।
पूर्णत: आश्वस्त हो निज सत्य को मैं धर रहा ।
सर्वथा है व्यक्तिगत अभिव्यक्त जो मैं कर रहा ।।
यह मेरी और उस ख़ुदा की शत्रुता का रूप है ।
जिसने मरुथल में मुझे जो धूप पर दी धूप है ।।
लोग कहते हैं कि उसके हाथ में हर बात है ।
वह जो चाहे सब छुड़ाले या वरे सौग़ात है ।।
वह असंभव को भी संभव चुटकियों में कर धरे ।
वह निपूतों की भी गोदी बाल बच्चों से भरे ।।
सच कहूँँ गुड़िया से भी प्यारी महज औलाद इक ।
हमने भी पाई थी कितनी मन्नतों के बाद इक ।।
यूँँ लगा जैसे मरुस्थल में हुई गंगा प्रकट ।
मिल गई अंधों को आँँखें भिक्षुओं को स्वर्णघट ।।
शुक्रिया रब का कभी करना ना हम भूले मगर ।
हो गया इक दिन ख़फ़ा जाने न वो किस बात पर ।।
सच कहूँँ सच्चाई से भी अत्यधिक सच्ची मेरी ।
अल्पवय में ही अचानक पुष्प सी बच्ची मेरी ।।
खेलते ही खेलते इक दिन अचानक यों गिरी ।
लाइलाज ऐसे भयानक रोग से वह जा घिरी ।।
विश्व में औषध नहीं ऐसे किसी बीमार की ।
डॉक्टर बोले ये बस पाहुन है दिन दो-चार की ।।
अस्पताल उसको लिए गोदी में हम फिरते रहे ।
बेचकर सब कुछ इलाज उसका मगर करते रहे ।।
रात-दिन करते रहे विश्वास रख रब से दुआ ।
पर चमत्कार ईश्वर की ओर से जब ना हुआ ।।
यूँँ लगे सीने में खंजर-तीर से धँसते हुए ।
उठ गई जिस दिन वो बेहोशी में भी हँसते हुए ।।
यों बिलख कर रोए हम पत्थर भी पानी हो गया ।
तब से नज़रों में हमारी रब भी फ़ानी हो गया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
( एक मित्र के सतत अनुरोध पर यह कविता लिखी जिनकी प्राणप्रिय इकलौती पुत्री अल्पावस्था में ब्रेन ट्यूमर से इस जहाँ में नहीं रही )
Sunday, October 21, 2018
ग़ज़ल : 269 - आसव
शुद्ध गंगाजल से आसव हो गया हूँ ।।
शिव था बिन तेरे पुरा-शव हो गया हूँ ।।
बुलबुलों से कोयलों से भी मधुर मैं ,
तुम नहीं तो मूक-नीरव हो गया हूँ ।।
जानता हूँ तुम नहीं होओगे मेरे ,
क्या करूँ हृद-आत्म से तव हो गया हूँ ?
तुम रहे जैसे थे वैसे ही तो मैं भी ,
कौन सा प्राचीन से नव हो गया हूँ ?
शक्य शेरों को भी मैं पहले नहीं था ,
अब श्रृगालों को भी संभव हो गया हूँ !!
जैसे बिन राधा हुए थे कृष्ण , तुम बिन
मैं भी त्यों सियहीन राघव हो गया हूँ ।।
( आसव = शराब , पुरा-शव = पुरानी लाश , मूक = चुप , नीरव = बिना शब्द का , तव = तुम्हारा , शक्य = संभव , श्रृगाल = गीदड़ , राघव = श्रीराम )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, September 23, 2018
Saturday, September 22, 2018
ग़ज़ल : 268 - मेहँदियाँ
मुझसे तुम दो ही पल भर सटी रह गयीं ।।
सारी दुनिया की आँखें फटी रह गयीं ।।
मैं गुटक कर ख़ुशी कद्दू होता गया ,
तुम चबा फ़िक्र को बरबटी रह गयीं ।।
चाहकर बन सका मैं न सर्कस का नट ,
तुम नहीं चाह कर भी नटी रह गयीं ।।
और सब कुछ गया भूल मैं अटपटी ,
चंद बातें तुम्हारी रटी रह गयीं ।।
इक भी दुश्मन न अपना बचा जंग में ,
इस दफ़ा लाशें बस सरकटी रह गयीं ।।
तेरे हाथों में लगने की ज़िद पर अड़ी ,
मेहँंदियाँ कितनी ही बस बटी रह गयीं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, September 21, 2018
Sunday, September 16, 2018
गीत : 50 - हाथ काँधों पर नहीं
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
हाथ में लेकर चिरागों क्या मशालों को ,
ढूँँढने पर भी न पाओगे कहीं मुझसा ।।
मैं बुरा हूँँ या भला हूँँ इस ज़माने में ,
दूसरा हरगिज़ यहाँँ कोई नहीं मुझसा ।।
क्यों हूँँ मैं ? जानूँँ न मैं इतना मगर तय है ,
मैं अजब हूँँ ,मैं ग़ज़ब हूं ,मैं चुनिंदा हूँँ ।।
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
वो ज़माना क्या हुआ जब मुझ से जुड़कर तुम ,
चाहते थे शह्र में मशहूर हो जाऊँँ ?
कर रहे हो रात दिन ऐसे जतन अब क्यों ,
मैं तुम्हारी ज़िंदगी से दूर हो जाऊँँ ?
मत रगड़ , धो-धो मिटाने की करो कोशिश ,
दाग़ माथे का नहीं मैं एक बिंदा हूँँ ।।
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
( पर = पंख ; बिंदा = माथे पर लगाने वाली बड़ी गोल बिंदी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, September 2, 2018
ग़ज़ल : 267 - तोप से बंदूक
तोप से बंदूक से इक तीर हो बैठा ।।
नौजवानी में ही साठा पीर हो बैठा ।।
चुप रहा तो बज गया दुनिया में गूँँगा वो ,
कह उठा तो सीधे ग़ालिब-मीर हो बैठा ।।
बनके इक सय्याद रहता था वो जंगल में ,
आके दर्याओं में माहीगीर हो बैठा ।।
हिज़्र में दिन-रात सोते-जागते फिरते ,
रटते-रटते हीर...राँँझा हीर हो बैठा ।।
जो कहा करता था इश्क़ आज़ाद करता है ,
उसके ही पाँँवों की वह ज़ंजीर हो बैठा ।।
इस क़दर उसको सताया था ज़माने ने ,
वह छड़ी से लट्ठ फिर शमशीर हो बैठा ।।
उसने मर्यादा को अपनाया तो सच मानो ,
वह निरा रावण...खरा रघुवीर हो बैठा ।।
( साठा=साठ वर्ष का ,पीर=वृद्ध , सय्याद=चिड़ीमार ,
दर्या=नदी ,माहीगीर=मछली पकड़ने वाला ,हिज़्र=विरह ,
शमशीर=तलवार ,रघुवीर=रामचंद्र )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, August 16, 2018
Sunday, August 12, 2018
ग़ज़ल : 266 - ढोल बजाकर
आँसू उनकी आंँखों का चश्मा है गहना है ।।
जिन लोगों का काम ही रोना रोते रहना है ।।
झूठ है रोने से होते हैं ग़म कम या फिर ख़त्म ,
ढोल बजाकर ये सच दुनिया भर से कहना है ।।
ख़ुशियों का ही जश्न मनाया जाता महफ़िल में ,
दर्द तो जिसका है उसको ही तनहा सहना है ।।
क्या मतलब मज़्बूती छत दीवार को देने का ,
आख़िर बेबुनियाद घरों को जल्द ही ढहना है। ।।
ज्यों ताउम्र हिमालय का है काम खड़े रहना ,
यूँँ ही गंगा का मरते दम तक बस बहना है ।।
क्यों नज़रें ना गाड़ें तेरे तन पर अंधे भी ,
क्यों तूने बारिश में झीना जामा पहना है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, August 9, 2018
गीत : 49 - दिल जोड़ने चले हो
दिल जोड़ने चले हो ठहरो ज़रा संँभलना ।।
टूटे हैं दिल हज़ारों इस दिल्लगी में वर्ना ।।
मासूमियत की तह में रखते हैं बेवफ़ाई ।
मतलब परस्त झूठी करते हैं आश्नाई ।
राहे वफ़ा में देखो यूँँ ही क़दम न धरना ।।
टूटे हैं दिल हज़ारों इस दिल्लगी में वर्ना ।।
रुस्वाई, बेवफ़ाई, दर्दे जुदाई वाली ।
गुंजाइशें हैं इसमें ख़ूँ की रुलाई वाली ।
आसाँ नहीं है हरगिज़ इस राह से गुजरना ।।
टूटे हैं दिल हज़ारों इस दिल्लगी में वर्ना ।।
मुमकिन नहीं मोहब्बत की जंग में बताना ।
मारेंगे बाज़ी आशिक़ या संगदिल ज़माना ।
आग़ाज़ कर रहे हो अंजाम से न डरना ।।
टूटे हैं दिल हज़ारों इस दिल्लगी में वर्ना ।।
आग़ाज़े आशिक़ी में ख़तरा नज़र न आए ।
अंजाम ज़िंदगी पर ऐसा असर दिखाए ।
नाकामे इश्क़ को कई कई बार होता मरना ।।
टूटे हैं दिल हज़ारों इस दिल्लगी में वर्ना ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, July 29, 2018
ग़ज़ल : 265 - न पीते हैं पानी.....
अजीब हैं उजालों को शम्मा बुझाते ।।
परिंदों के पर बांँधकर वो उड़ाते ।।
हैं ख़ुद फूल-पत्ती से भी हल्के-फुल्के ,
मगर सर पे ईंट और पत्थर उठाते ।।
वो आवाज़ देकर कभी भी न मुझको ,
इशारों से ही क्यों हमेशा बुलाते ?
न पीते हैं पानी को जाकर कुओं पर ,
वो अंगार खा प्यास अपनी बुझाते ।।
वो किस्सा सुनें ग़ौर से ग़ैर का भी
न रोना किसी को भी अपना सुनाते ।।
कन्हैया हैं ले आड़ माखन की दरअस्ल ,
अरे गोपियों का वो दिल हैं चुराते ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, July 15, 2018
ग़ज़ल : 264 - पेचोख़म
जब ज़ियादा मिल रहा क्यों कम मैं रख लूँँ ?
है मयस्सर जब मज़ा क्यों ग़म में मैं रख लूँँ ?
इक न इक दिन ज़ख्म तो वह देंगे आख़िर ,
क्यों न लेकर आज ही मरहम मैं रख लूँँ ?
इस क़दर प्यासी है सोचूँ इस नदी के
वास्ते बारिश के कुछ मौसम मैं रख लूँँ !!
उसकी क़िस्मत में नहीं का'बा पहुँँचना ,
क्यों ना क़त्रा भर उसे ज़मज़म मैं रख लूँँ ?
बस शराफ़त से बसर दुनिया में मुश्किल ,
क्यों न ख़ुद में थोड़े पेचोख़म मैं रख लूँँ ?
दुश्मनों के बीच रहने जा रहा हूँँ ,
क्या छुरे-चाकू व गोले-बम मैं रख लूँँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, July 8, 2018
ग़ज़ल : 263 - रागा करें
एक भी दिन का कभी हरगिज़ न हम नागा करें ।।
एक उल्लू और इक हम रात भर जागा करें ।।
उनपे हम दिन रात बरसाते रहें चुन-चुन के फूल ,
हमपे वो गोले दनादन आग के दागा करें ।।
जो हमारे कान के पर्दों को रख दे फाड़कर ,
ऐसे सच से बचके कोसों दूर हम भागा करें ।।
किस लिए तुम पूछते हो और हम बतलाएँँ क्यों ,
उनके हम क्या हैं हमारे कौन वो लागा करें ?
लोग धागे से यहाँँ हम लोहे की ज़ंजीर से ,
खुल न जाएँँ कस के ऐसे ज़ख़्म को तागा करें ।।
वो नहीं अच्छे मगर हैं ख़ूबसूरत इस क़दर ,
हम तो क्या दुश्मन भी उनके उनसे बस रागा करें ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, July 2, 2018
ग़ज़ल : 262 - पागल सरीखा
उसको रोने का यक़ीनन हर सबब पुख़्ता मिला ।।
फिर भी वह हर वक़्त लोगों को फ़क़त हंँसता मिला ।।
मंज़िलों पर लोग सब आराम फ़रमाते मिले ,
वह वहाँँ भी कुछ न कुछ सच कुछ न कुछ करता मिला ।।
सब उछलते-कूदते जब देखो तब चलते मिले ,
वह हमेशा ही समुंदर की तरह ठहरा मिला ।।
" मैं तो खुश हूं सच बहुत खुश आंँख तो यूँँ ही बहे ,
अपने हर पुर्साने ग़म से वह यही कहता मिला ।।
अपने ज़ालिम बेवफ़ा महबूब के भी वास्ते ,
हर जगह पागल सरीखा वह दुआ करता मिला ।।
हर कोई इक दूसरे को कर रहा नंगा जहाँँ ,
वह वहाँँ उघड़े हुओं पर कुछ न कुछ ढँकता मिला ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, June 30, 2018
ग़ज़ल : 261 - ग़ज़लें
नंगे पांँवों जब काँटों पर चलना आता था ।।
तब मुझ को तक़्लीफ़ में भी बस हंँसना आता था ।।
उसके ग़म में सच कहता हूंँ हो जाता पागल ,
मेरी क़िस्मत मुझको ग़ज़लें कहना आता था ।।
उसने मुंँह से कब कुछ बोला रब का शुक्र करो ,
मुझ को बचपन से आंँखों को पढ़ना आता था ।।
उसकी जाने कैसी-कैसी पोलें खुल जातीं ,
वो तो राज़ मुझे सीने में रखना आता था ।।
वह तन कर ही रहता था तो कट बैठा जल्दी ,
मैं हूंँ सलामत मुझको थोड़ा झुकना आता था ।।
इंसाँँ हूंँ यह सोच किसी को फुफकारा भी कब ,
वरना मुझ को भी सांँपों सा डसना आता था ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, June 28, 2018
ग़ज़ल : 260 - कैसे-कैसे लोग
कैसे-कैसे लोग दुनिया में पड़े हैं ।।
सोचते पाँवों से सिर के बल खड़े हैं ।।
आइनों के वास्ते अंधे यहाँँ , वाँ
गंजे कंघों की खरीदी को अड़े हैं ।।
जिस्म पर खूब इत्र मलकर चलने वाले ,
कुछ सड़े अंडों से भी ज्यादा सड़े हैं ।।
बस तभी तक जिंदगी ख़ुशबू की समझो ,
जब तलक गहराई में मुर्दे गड़े हैं ।।
देखने में ख़ूबसूरत इस जहाँँ के ,
आदमी कुछ बेतरह चिकने घड़े हैं ।।
सिर न जब तक कट गिरा हम दम से पूरे ,
ज़िंदगी से जंग रोज़ाना लड़े हैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, June 27, 2018
ग़ज़ल : 259 - पापड़
जिस्म धन-दौलत सा जोड़ा जा रहा है ।।
और दिल पापड़ सा तोड़ा जा रहा है ।।
दौड़ता है पीछे-पीछे मेरा कछुआ ,
आगे-आगे उनका घोड़ा जा रहा है ।।
पहले ख़ुद डाला गया उस रास्ते पर ,
अब उसी से मुझको मोड़ा जा रहा है ।।
तोड़कर फिर काटकर हम नीबुओं को ,
मीठे गन्ने सा निचोड़ा जा रहा है ।।
उनका ग़म अब धीरे-धीरे , धीरे-धीरे ,
थोड़ा-थोड़ा , थोड़ा-थोड़ा जा रहा है ।।
वो हुए नाकाम अपनी वज्ह से ही ,
ठीकरा औरों पे फोड़ा जा रहा है ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, June 23, 2018
ग़ज़ल : 258 - फूल.....
देते हैं ज़ख़्म पत्थर को भी यहाँँ के फूल ।।
देती पहाड़ को भी टक्कर इधर की धूल ।।1।।
हेठी क्या इसमें ख़ुद बढ़ हाथी जो करले सुल्ह ,
चींटी से दुश्मनी को देना न ठीक तूल ।।2।।
सर , सर के बदले , टांँगों के बदले सिर्फ टाँँग ,
इंसाफ़ का मुझे यह लगता सही उसूल ।।3।।
सोने की चौखटों में कस-कस भी कीजै नज़्र ,
तब भी रहेंगे अंधों को आइने फ़ुज़ूल ।।4।।
पाए हैं उस जगह से सचमुच ही उसने आम ,
बोए थे जिस जगह पर उसने कभी बबूल ।।5।।
करते ज़रूर हैं वो मंज़ूर करना इश्क़ ,
लेकिन निकाह करना करते नहीं क़बूल ।।6।।
क्या हो गया गुनह पर अब वो करें गुनाह ,
करते नहीं थे भूले से भी कभी जो भूल ?7।।
( सुल्ह = सुलह , संधि , मेल / नज़्र = भेंट / फ़ुज़ूल = व्यर्थ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, June 21, 2018
ग़ज़ल : 257 - मक़्बरा
बन सका चिकना न सब कुछ खुरदरा बनवा लिया ।।
सबने ही मीनार हमने चौतरा बनवा लिया ।।1।।
जब बना पाए न हम अपना मकाँ तो जीते जी ,
क़ब्र खुदवा अपनी अपना मक़्बरा बनवा लिया ।।2।।
ज़ुर्म क्या गर अपनी बेख़बरी में अपने घर ही पर ,
अपने बावर्ची से हलवा चरपरा बनवा लिया ।।3।।
उन से खिंच कर उनकी हद में जा न पहुंँचेंं सोचकर ,
हमने अपने आसपास इक दायरा बनवा लिया ।।4।।
प्यास को अपनी बुझाने घर न गंगा ला सके ,
इसलिए आंँगन में छोटा पोखरा बनवा लिया ।।5।।
हुक़्म के उसके ग़ुलाम हम इस क़दर थे इक दफ़ा,
उसने दी चोली तो हमने घाघरा बनवा लिया ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, June 18, 2018
ग़ज़ल : 256 - मंज़िल
सच दोस्ती न रिश्तेदारी न प्यार है ।।
दुनिया में सबसे बढ़कर बस रोज़गार है ।।1।।
मंज़िल पे हमसे पहले पहुंँचे न क्यों वो फिर ,
हम पे न साइकिल भी उसपे जो कार है ।।2।।
सामाँँ है जिसपे ऐशो-आराम के सभी ,
है फूल उसी को जीवन बाक़ी को ख़ार है ।।3।।
बारूद के धमाके सा दे सुनाई क्यों ,
जब-जब भी उसके दिल में बजता सितार है ?4।
हर वक़्त रोशनी का है इंतिज़ाम यूंँ ,
रातों को भी वहांँ पर लगता नहार है ।।5।।
उतना है वह परेशाँँ , उतना ही ग़मज़दा ,
इस दौर में जो जितना ईमानदार है ।।6।।
( ख़ार = काँटा / नहार = दिन , दिवस )
( ख़ार = काँटा / नहार = दिन , दिवस )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, June 11, 2018
ग़ज़ल : 255 - वो मेरा है.......
बड़ी जिद्दोजहद से , कशमकश से , सख्त़ मेहनत से ।।
मोहब्बत मैंने की दुश्मन से अपने घोर नफ़रत से ।।1।।
न भूले भी पड़ा क्यों इश्क़ के पचड़ों - झमेलों में ?
बचाए ख़ुद को रखने ही ज़माने भर की आफ़त से ।।2।।
वो मेरा है ; मगर अच्छा नहीं , कब तक रहूंँ मैं चुप ?
बहुत मज़्बूर हूँ इस अपनी सच कहने की आदत से ।।3।।
न रोऊँ मैं अजब है अपनी बर्बादी पे हांँ लेकिन ,
मैं जल उठता हूंँ झट काफ़ूर सा औरों की बरकत से ।।4।।
मेरा सर काट के फ़ुटबॉल ही उसकी बना लो तुम ,
रहम करके न खेलो राह चलते मेरी अस्मत से ।।5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, June 9, 2018
Sunday, June 3, 2018
ग़ज़ल : 254 - चोरी चोरी
उसको चोरी चोरी छुप कर देखना भाता नहीं है ।।
क्या करूँ वह सामने खुलकर मेरे आता नहीं है ?
लोग सब दहशतज़दा हों देखकर मुझको मगर क्यों ,
धमकियों से भी वो मेरी टुक भी घबराता नहीं है ?
फाँसियों पर टाँगने वाला ज़रा सी भूल पर वो ,
क्यों गुनाहों पर भी मेरे मुझको मरवाता नहीं है ?
क्यों दुआएखै़र मेरे वास्ते करता फिरे वो ?
और क्यों....पूछूंँ तो अपना नाम बतलाता नहीं है ?
नाम पर नुक्स़ाँ के उमरा सर उठाते आस्मांँ को ,
लाल गुदड़ी का वो लुटपिट कर भी चिल्लाता नहीं है ।।
( दुआएख़ैर = कुशलता की कामना ,नुक़्साँ = घाटा , उमरा = अमीर लोग )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, April 28, 2018
Sunday, April 22, 2018
ग़ज़ल : 253 - दामाद
दर्द में भी जो मज़ा सा शाद रहता हूँ !!
अपने सीने में जकड़ लो बाँध लो कसके ,
ऐसी ही क़ैदों में मैं आज़ाद रहता हूँ !!
उसके क़ब्ज़े में मैं उसकी ज़िद की ख़ातिर सच ,
बाप होकर उसकी बन औलाद रहता हूँ !!
शह्र की उजड़ी हुई हालत पे मत जाओ ,
अब भी मैं तब सा यहाँ आबाद रहता हूँ !!
जाने क्यों उसकी ख़ुदी के इक सुकूँ भर को ,
होके अव्वल भी मैं उसके बाद रहता हूँ !!
वक़्त देखो जो मुझे दुत्कारते आए ,
बनके उनका ही मैं अब दामाद रहता हूँ !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, March 30, 2018
Thursday, March 29, 2018
ग़ज़ल : 252 - वो नहीं होगा मेरा
वो नहीं होगा मेरा ये जानता हूँ मैं !!
फिर भी उसको अपनी मंज़िल मानता हूँ मैं !!
दोस्त अब हरगिज़ नहीं वह रह गया मेरा ,
फिर भी उस से दुश्मनी कब ठानता हूँ मैं !!
पीठ में मेरी वो ख़ंजर भोंकता रहता ,
उसके सीने पर तमंचा तानता हूँ मैं !!
वह मुझे ऊपर ही ऊपर जान पाया है ,
उसको तो अंदर तलक पहचानता हूँ मैं !!
सूँघते ही जिसको वो बेहोश हो जाते ,
रात दिन उस बू को दिल से टानता हूँ मैं !!
वो मेरी लैला है 'लैला' 'लैला' चिल्लाता ,
ख़ाक सह्रा की न यों ही छानता हूँ मैं !!
( टानता = सूँघता , सह्रा = जंगल )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, March 24, 2018
Thursday, March 22, 2018
Wednesday, March 14, 2018
Tuesday, March 13, 2018
Friday, March 9, 2018
ग़ज़ल : 251 - खोए-खोए ही रहते हैं
मेरी तक्लीफ़ का उनको अंदाज़ क्या ?
हँसने का भी उन्हें है पता राज़ क्या ?
आजकल खोए-खोए ही रहते हैं तो '
कर चुके वो मोहब्बत का आग़ाज़ क्या ?
जो बुलाते हैं दुत्कार के फिर मुझे ,
उनकी दहलीज़ मैं जाऊँगा बाज़ क्या ?
ऐसी चलती है उनकी ज़ुबाँ दोस्तों ,
उसके आगे चलेगी कोई गाज़ क्या ?
पेट भी जो हमारा न भर पाए गर ,
उस हुनर पर करें भी तो हम नाज़ क्या ?
तोहफ़े में मुझे तुम न संदूक दो ,
मुझसा ख़ाली रखेगा वहाँ साज़ क्या ?
( बाज़ = पुनः / गाज़ = कैंची )
( बाज़ = पुनः / गाज़ = कैंची )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, March 2, 2018
ग़ज़ल : 250 - कुत्ते सी हरक़त
आपस में बेमक़सद लड़ते मरते देखा है !!
इंसाँ को कुत्ते सी हरक़त करते देखा है !!
गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलने वाले को ,
मैंने होली में रंगों से डरते देखा है !!
गर तुमने देखी है चूहे से डरती बिल्ली ,
मैंने भी बिल्ली से कुत्ता डरते देखा है !!
प्यार में अंधे कितने ही फूलों को हँस-हँसकर ,
नोक पे काँटों की होठों को धरते देखा है !!
हैराँ हूँ कल मैंने इक ज्वालामुखी के मुँह से ,
लावे की जा ठण्डा झरना झरते देखा है !!
कैसा दौर है कल इक भूखे शेर को जंगल में ,
गोश्त न मिलने पर सच घास को चरते देखा है !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, February 26, 2018
Sunday, February 25, 2018
Monday, February 19, 2018
Sunday, February 18, 2018
Saturday, February 17, 2018
Wednesday, February 14, 2018
ग़ज़ल : 249 - सिर को झुकाना पड़ा
आँखों को आज उससे चुराना पड़ा मुझे !!
कुछ कर दिया कि सिर को झुकाना पड़ा मुझे !!
जिसको मैं सोचता था ज़मीं में ही गाड़ दूँ ,
उसको फ़लक से ऊँचा उठाना पड़ा मुझे !!
उसको हमेशा खुलके हँसाने के वास्ते ,
कितना अजीब है कि रुलाना पड़ा मुझे !!
उसकी ही बात उससे किसी बात के लिए ,
कहने के बदले उल्टा छुपाना पड़ा मुझे !!
नौबत कुछ ऐसी आयी कि दिन-रात हर घड़ी ,
रटता था जिसको उसको भुलाना पड़ा मुझे !!
दुश्मन ज़रूर था वो मगर इतना था हसीं ,
उसको जो जलते देखा बुझाना पड़ा मुझे !!
सचमुच बस एक बार बुलंदी को चूमने ,
ख़ुद को हज़ार बार गिराना पड़ा मुझे !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, February 8, 2018
ग़ज़ल : 248 - चीता बना दे.........
मत बिलाशक़ तू कोई भी नाख़ुदा दे !!
सिर्फ़ मुझको तैरने का फ़न सिखा दे !!
जो किसी के पास में हरगिज़ नहीं हो ,
मुझको कुछ ऐसी ही तू चीज़ें जुदा दे !!
सबपे ही करता फिरे अपना करम तू ,
मुझपे भी रहमत ज़रा अपनी लुटा दे !!
जिस्म तो शुरूआत से हासिल है उसका ,
तू अगर मुम्किन हो उसका दिल दिला दे !!
सिर्फ़ ग़म ही ग़म उठाते फिर रहा हूँ ,
कुछ तो सिर पर ख़ुशियाँ ढोने का मज़ा दे !!
सबके आगे जिसने की तौहीन मेरी ,
मेरे क़दमों में तू उसका सिर झुका दे !!
हर कोई कहता है मैं इक केंचुआ हूँ ,
तू हिरन मुझको या फिर चीता बना दे !!
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, February 3, 2018
Wednesday, January 31, 2018
Monday, January 29, 2018
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मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
