Sunday, September 16, 2018

गीत : 50 - हाथ काँधों पर नहीं


हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
हाथ में लेकर चिरागों क्या मशालों को ,
ढूँँढने पर भी न पाओगे कहीं मुझसा ।।
मैं बुरा हूँँ या भला हूँँ इस ज़माने में ,
दूसरा हरगिज़ यहाँँ कोई नहीं मुझसा ।।
क्यों हूँँ मैं ? जानूँँ न मैं इतना मगर तय है ,
मैं अजब हूँँ ,मैं ग़ज़ब हूं ,मैं चुनिंदा हूँँ ।। 
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
वो ज़माना क्या हुआ जब मुझ से जुड़कर तुम ,
चाहते थे शह्र में मशहूर हो जाऊँँ ? 
कर रहे हो रात दिन ऐसे जतन अब क्यों ,
मैं तुम्हारी ज़िंदगी से दूर हो जाऊँँ ?
मत रगड़ , धो-धो मिटाने की करो कोशिश ,
दाग़ माथे का नहीं मैं एक बिंदा हूँँ ।।
हाथ काँँधों पर नहीं गर्दन से सर ग़ायब ,
पैर भी टूटे हुए हैं फिर भी ज़िंदा हूँँ !!
पीठ पर मेरे न इक पर लेकिन आँँखों में ,
ख़्वाब उड़ानों के लिए जीता परिंदा हूँँ !!
( पर = पंख ; बिंदा = माथे पर लगाने वाली बड़ी गोल बिंदी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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