Friday, March 9, 2018

ग़ज़ल : 251 - खोए-खोए ही रहते हैं


मेरी तक्लीफ़ का उनको अंदाज़ क्या ?
हँसने का भी उन्हें है पता राज़ क्या ?
आजकल खोए-खोए ही रहते हैं तो '
कर चुके वो मोहब्बत का आग़ाज़ क्या ?
जो बुलाते हैं दुत्कार के फिर मुझे ,
उनकी दहलीज़ मैं जाऊँगा बाज़ क्या ?
ऐसी चलती है उनकी ज़ुबाँ दोस्तों ,
उसके आगे चलेगी कोई गाज़ क्या ?
पेट भी जो हमारा न भर पाए गर ,
उस हुनर पर करें भी तो हम नाज़ क्या ?
तोहफ़े में मुझे तुम न संदूक दो ,
मुझसा ख़ाली रखेगा वहाँ साज़ क्या ?
( बाज़ = पुनः / गाज़ = कैंची )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...