वो नहीं होगा मेरा ये जानता हूँ मैं !!
फिर भी उसको अपनी मंज़िल मानता हूँ मैं !!
दोस्त अब हरगिज़ नहीं वह रह गया मेरा ,
फिर भी उस से दुश्मनी कब ठानता हूँ मैं !!
पीठ में मेरी वो ख़ंजर भोंकता रहता ,
उसके सीने पर तमंचा तानता हूँ मैं !!
वह मुझे ऊपर ही ऊपर जान पाया है ,
उसको तो अंदर तलक पहचानता हूँ मैं !!
सूँघते ही जिसको वो बेहोश हो जाते ,
रात दिन उस बू को दिल से टानता हूँ मैं !!
वो मेरी लैला है 'लैला' 'लैला' चिल्लाता ,
ख़ाक सह्रा की न यों ही छानता हूँ मैं !!
( टानता = सूँघता , सह्रा = जंगल )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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