तुझको मैं आजन्म अपना मीत लिक्खूंगा ॥
तुझको मुझमें रुचि नहीं है जानता हूँ मैं ।
योग्य भी तेरे न मैं ये मानता हूँ मैं ।
तू करे दिन रात मुझसे धुर घृणा तो भी ,
मैं तुझे पल-पल मेरी सद्प्रीत लिक्खूंगा ॥
व्यर्थ दुःख-पीड़ा निरंतर हर तरह केवल ।
तूने यद्यपि मुझको सौंपा है विरह केवल ।
फिर भी तुझको लेके रति-संयोग श्रंगारिक ,
मैं तो हर्ष-उन्माद पूरित गीत लिक्खूंगा ॥
प्रेम-स्वप्निल माल अधटूटी पड़ी मेरी ।
तुझको पाने की शपथ झूठी पड़ी मेरी ।
पाते-पाते तुझको पा पाया न मैं तो क्या ?
होके मेरी हार तुझको जीत लिक्खूंगा ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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