सूखे
पत्तों में जैसे झट से आग लग जाए ।
पतला
कागज़ तनिक सी देख लौ सुलग जाए ।
मेरी
जितनी भी कामनाएँ थीं ,
भारी
बारिश में धू-धू जल बैठीं ॥
जैसे
पानी में होता हाल कच्ची मिट्टी का ।
अश्रु
गिरने से अपने प्राण-प्रिय की चिट्ठी का ।
जो लगाती थीं पार मुझको वो ,
सारी
नौकाएँ आज गल बैठीं ॥
जैसे
कुछ और वो नहीं हों मेरी छाया हों ।
गिरती
दीवार को सम्हालता वो पाया हों ।
साथ
में बैठती जो घंटों थीं ,
आज मनुहार
पे न पल बैठीं ॥
सच में
आजन्म का था , था नहीं क्षणिक मुझको ।
जिनपे
विश्वास हाँ स्वयं से भी अधिक मुझको ।
मेरे
मित्रों के साथ में मिल वो ,
मेरी
सखियाँ भी मुझको छल बैठीं ॥
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
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