Saturday, May 21, 2016

ग़ज़ल : 189 - उन्ही का ख़्वाब रहे ॥



हम पे प्यासों में भी न क़त्रा भर भी आब रहे ।।
उन पे नश्शे में भी सुराही भर शराब रहे ।।1।।
रोशनी को चिराग़ भी नहीं रहे है यहाँ ,
उनकी मुट्ठी में क़ैद सुर्ख़ आफ़्ताब रहे ।।2।।
जबकि मालूम है कि तै है शर्हा होना मगर ,
फिर भी आँखों में मेरी बस उन्हीं का ख़्वाब रहे ।।3।।
देख हालत को अपनी आज कैसे आए यक़ीं ,
हम कभी इस जहाँ में ख़ूब कामयाब रहे ?4।
आज अपने हुनर से उनके सिर के ताज हैं हम ,
जिनके पैरों की गाह जूती औ' जुराब रहे ।।5।।
उनकी नज़रों में तासिन इक ख़ता की वज्ह से हम ,
अच्छे होकर भी बस ख़राब बस ख़राब रहे ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

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