Sunday, May 15, 2016

गीत : 44 - जी भर गया है ॥



कि चाहो तो क्या तुम न चाहो तो क्या है ?
मोहब्बत से अब अपना जी भर गया है ॥
न धोखाधड़ी की न जुल्म-ओ-जफ़ा की ।
जो करता हो बातें हमेशा वफ़ा की ।
मगर तज़्रिबा अपना ज़ाती ये कहता ,
वही हमसे अक़्सर ही करता दग़ा है ॥
कि चाहो तो क्या तुम न चाहो तो क्या है ?
मोहब्बत से अब अपना जी भर गया है ॥
वो ग़ैरों को क्या अपनों तक को भी खलती ।
मैं करता हूँ जब देखो तब बात जलती ।
उगलती ज़ुबाँ बर्फ़ भी आग जैसा ,
क़सम से मेरा इस क़दर दिल जला है ॥
कि चाहो तो क्या तुम न चाहो तो क्या है ?
मोहब्बत से अब अपना जी भर गया है ॥
हुई साथ में जिसके ख़ालिस बुराई ।
ज़माने ने बस जिसको ठोकर लगाई ।
कई मर्तबा जो गिराया गया हो ,
वही आस्माँ से भी ऊँचा उठा है ॥
कि चाहो तो क्या तुम न चाहो तो क्या है ?
मोहब्बत से अब अपना जी भर गया है ॥
( तज़्रिबा = अनुभव , ज़ाती = निजी , ख़ालिस = विशुद्ध )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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