Wednesday, October 29, 2014

अकविता : [ 2 ] जंगली


आज मैं जो भी हूँ
मेरे वह होने की वजह
तुम्हारे बारंबार पूछने पर भी
तुम्हें किस मुँह से कहूँ
कि सिर्फ तुम ही हो
मैंने कभी भी न चाहा था ऐसा बनना
मैं तो चाहता था तुम्हारे मुताबिक बनना
तुम जो कह देते मैं वह बनकर न दिखा देता तो तुम कहते
तब मेरा बुरा मानना नाजायज़ होता
किन्तु तुमने ही मुझे कुछ बनने को नहीं कहा
स्वीकारते रहे मैं जैसा भी था
यह तो बिलकुल भी नहीं रहा होगा कि
मेरा हर रूप तुम्हारे सपनों सा रहा हो
किन्तु चूँकि तुमने मुझे हर सूरत में हर हाल में
मुस्कुराकर ही स्वीकारने की क़सम ली थी
तुमने मुझे बहुत चाहा
बहुत प्यार किया
बहुत लाड़ किया
तुमने मुझे वन के पौधे की तरह
जैसा चाहे स्वच्छंद फैलने दिया
उपवन के गुलाब की तरह उसकी
अनावश्यक दिशाहीन छितराती बढ़ती लताओं की
काट-छांट नहीं की
वह विशाल रूप तो पा गया
किन्तु बेडौल हो गया
तो अब उसे तुम्हारे द्वारा
जंगली , जंगली चिढ़ाना  
क्या न्यायोचित है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

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