Thursday, April 10, 2014

131 : ग़ज़ल - कुछ को नटखट




सबको नटखट , शरीर और चुलबुली वो लगे ।।
मुझको संजीदा , सीधी-सादी औ भली वो लगे ।।1।।
सबको लगती सुपारी सी तो नारियल सी कभी ,
मुझको गुलशन के गुलमुहर की इक कली वो लगे ।।2।।
उसका हर अंग जैसे नाप-तौल कर हो बना ,
अज सरापा ही एक साँचे में ढली वो लगे ।।3।।
वैसे औलाद तो है इक ग़रीब की ही मगर ,
हर अदा से मुझे अमीर-घर पली वो लगे ।।4।।
उसकी कंगन खनक सी , घुँघरू की छनक सी हँसी ,
बामज़ावाज़ से तो नर्म मखमली वो लगे ।।5।।
दोस्तों को तो अम्न ही का है पयाम सदा ,
दुश्मनों को हमेशा ख़बरे-ख़लबली वो लगे ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

4 comments:

Unknown said...

Bahut sunder...................dil ko chhu lene wali.

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Surender Saini जी !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (11-04-2014) को "शब्द कोई व्यापार नही है" (चर्चा मंच-1579) में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Meena Pathak जी !

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