Saturday, April 5, 2014

129 : ग़ज़ल - यूँ दर्द से छटपटा



यूँ दर्द से छटपटा रहा हूँ ।।
मैं ज़िंदगानी घटा रहा हूँ ।।1।।
चखा ही मैनें कभी खाया ,
मगर कहें सब चटा रहा हूँ ।।2।।
मैं सेब होकर भी उस नज़र में ,
हमेशा कददू-भटा रहा हूँ ।।3।।
सभी हुए बाल-बच्चों वाले ,
मैं अब भी लड़की पटा रहा हूँ ।।4।।
उजाले वो भोर के सुनहरे ,
मैं साँझ का झुटपुटा रहा हूँ ।।5।।
वो बनके वेणी सदा रहे हैं ,
मैं साधुओं की जटा रहा हूँ ।।6।।
सटा सका जब न उनको सीने ,
मैं दिल को उनसे हटा रहा हूँ ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

2 comments:

Ghanshyam kumar said...

वाह... बहुत सुन्दर...

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Ghanshyam kumar जी !

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