चुप-चाप नाँह कंगन-पायल बजा-बजा के ॥
आती हो बिन झझक क्यों ? आती नहीं लजा के ॥
क्या चाहती हो मुझसे ? क्यों बार-बार मेरे -
एकांत में स्वयं को लाती हो तुम
सजा के ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
4 comments:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-03-2015) को "बदलनी होगी सोच..." (चर्चा अंक-1905) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ! मयंक जी !
बेहद उम्दा रचना।
धन्यवाद ! कहकशाँ खान जी !
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