मन विक्षिप्त है मेरा
जाने क्या कर जाऊँ ?
बिच्छू को लेकर
जिह्वा पर चलने वाला ।
नागिन को मुँह से झट
वश में करने वाला ।
आज केंचुए से भी मैं
क्यों डर-डर जाऊँ ?
कुछ भी हो नयनों से
मेरे नीर न बहते ।
यों ही तो पत्थर मुझको
सब लोग न कहते ।
किस कारण फिर आज
आँख मैं भर-भर जाऊँ ?
सच जैसे टपका हो
मधु खट्टी कैरी से ।
अचरज ! पाया स्नेह-
निमंत्रण जो बैरी से ।
हाँ ! जाना तो नहीं
चाहता हूँ पर जाऊँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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