Thursday, February 12, 2015

गीत (22) - मन विक्षिप्त है मेरा जाने क्या कर जाऊँ ?


मन विक्षिप्त है मेरा 
जाने क्या कर जाऊँ ?
बिच्छू को लेकर 
जिह्वा पर चलने वाला ।
नागिन को मुँह से झट
 वश में करने वाला ।
आज केंचुए से भी मैं
 क्यों डर-डर जाऊँ ?
कुछ भी हो नयनों से 
मेरे नीर न बहते ।
यों ही तो पत्थर मुझको
 सब लोग न कहते ।
किस कारण फिर आज
 आँख मैं भर-भर जाऊँ ?
सच जैसे टपका हो 
मधु खट्टी कैरी से ।
अचरज ! पाया स्नेह- 
निमंत्रण जो बैरी से ।
हाँ ! जाना तो नहीं 
चाहता हूँ पर जाऊँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

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