पथ में पाटल नहीं ॥
पग में चप्पल नहीं ॥
मुझको काँटों पे कब तक
यों दौड़ाओगे ?
चाहे जल न सके
पर जलाता रहा ।
आग से आग जल में
लगाता रहा ।
तुमने जो-जो भी चाहा
वो करता रहा ।
मैं कुओं से मरुस्थल
को भरता रहा ।
यों मैं निर्बल नहीं ॥
पर कोई कल नहीं ॥
क्या न जीवित पे थोड़ा
तरस खाओगे ?
कंटकित हार को
पुष्पमाला कहा ।
तेरे कहने पे तम को
उजाला कहा ।
झूठ का बोझ अब मुझको
यों लग रहा –
जैसे हिरनी को चट करने
सिंह भग रहा ।
बूंद भर जल नहीं ॥
फिर भी मरुथल नहीं ॥
आग को पानी कब तक
कहलवाओगे ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
5 comments:
धन्यवाद ! मयंक जी !
बहुत सुन्दर ...
धन्यवाद ! Pratibha Verma जी !
bahut sundar navget hai gahare abhav ko vyakt karta hua sundar sarthak navgeet hardik badhai
धन्यवाद ! shashi purwar जी !
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