उसे कितना ख़्याल है
हमारी आँखों के स्वाद का ।
आज मैंने जाना ।
जबकि उसे देखा
उजाले में ,
दरारों से छिपकर ।
वह सब जो वह लादे रहती थी
निर्धन होकर भी
सर्वथा नकली , सस्ते ढेरों अलंकार -
जो उसके चेहरे को प्रकट करने के बजाय
विलुप्तप्राय करते रहते थे
छटपटाकर
सिर के पहाड़ की तरह पटकते हुए ,
फोड़े के मवाद की तरह मसकते हुए ।
मैंने पाया
यदि वह
बिना आभूषणों के हमारे सामने पड़ जाए
तो उबकाई रोके न रुके
यह जानकर
मुझे उसकी आभूषण लादे रहने की विवशता पर
जिसे मैं अब तक उसका शौक समझकर
उसका तिरस्कार करता रहा था
घृणा उगलता रहा था
आज असीम श्रद्धा उमड़ आई ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
4 comments:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (18-01-2015) को "सियासत क्यों जीती?" (चर्चा - 1862) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ! मयंक जी !
प्रशंसनीय रचना - बधाई
आग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
शब्दों की मुस्कुराहट पर ...पुरानी डायरी के पन्ने : )
धन्यवाद ! संजय भास्कर जी !
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