Tuesday, January 27, 2015

गीत (18) - तुझको पुस्तक सा पढ़ा है रे


क्यों तेरी अनुपम छटा का आर्य ,
चित्र आँखों में मढ़ा है रे ?
जैसे कोई भक्त रामायण ।
सह-हृदय करता है पारायण ।
पाठ्यक्रम की मैंने इक अनिवार्य
तुझको पुस्तक सा पढ़ा है रे ॥
कोसता हूँ क्यों सतत वह क्षण ?
जब हुआ तुझ पर हृदय अर्पण ।
प्रेम मेरा तुझको अस्वीकार्य –
पर तेरा मुझ सिर चढ़ा है रे ॥
ढाल का सुंदर मेरी कण-कण ।
तू ही करता था मेरा यों पण ।
क्यों हुआ अब मैं तुझे परिहार्य ?
तूने ख़ुद मुझको गढ़ा है रे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

2 comments:

Unknown said...

बहुत सुन्दर

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Lekhika 'Pari M Shlok' जी !

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...