■ चेतावनी : इस वेबसाइट पर प्रकाशित मेरी समस्त रचनाएँ पूर्णतः मौलिक हैं एवं इन पर मेरा स्वत्वाधिकार एवं प्रतिलिप्याधिकार ℗ & © है अतः किसी भी रचना को मेरी लिखित अनुमति के बिना किसी भी माध्यम में किसी भी प्रकार से प्रकाशित करना पूर्णतः ग़ैर क़ानूनी होगा । रचनाओं के साथ संलग्न चित्र स्वरचित / google search से साभार । -डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, January 31, 2015
Friday, January 30, 2015
मुक्तक : 665 - मेरी इक तरफ़ा आश्नाई
जिसने दुनिया मेरी बनाई थी ॥
ज़िंदगानी मेरी सजाई थी ॥
मेरी मेहनत न वो मेरी क़िस्मत
,
मेरी इक तरफ़ा आश्नाई थी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, January 29, 2015
*हाइकु-माला (1)
*हाइकु-माला (1)
============
तन से काली ॥
पर हिय से वह -
शुभ्र दिवाली ॥
============
मेरी मंज़िल ॥
ग़ैर मुमकिन सा –
आपका दिल ॥
============
अति नव्य है ॥
सच ही घर तेरा –
अति भव्य है ॥
============
आ जा सजलें ॥
दुख से बचकर –
थोड़ा नचलें ॥
============
थक रहा हूँ ॥
पल दो पल भर –
रुक रहा हूँ ॥
============
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, January 28, 2015
गीत (19) - सुख के कारागार से कर दो मुक्त मुझे
हाँ अपने अपराध मुझे स्वीकार्य सभी ,
ऐसा दण्ड दो हो पापों का क्षय जिससे ॥
सुख के कारागार से कर दो मुक्त मुझे ।
लौह-श्रंखला भार से कर दो युक्त मुझे ।
नख उखाड़ो, कीलें ठोंको, दागो, पीटो
और हँसो भीषण पीड़ा दे उक्त मुझे ।
ताकि करूँ ना फिर से ऐसा कार्य कभी ,
हो स्वतन्त्रता छिन जाने का भय जिससे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, January 27, 2015
गीत (18) - तुझको पुस्तक सा पढ़ा है रे
क्यों तेरी अनुपम छटा का आर्य ,
चित्र आँखों में मढ़ा है रे ?
जैसे कोई भक्त रामायण ।
सह-हृदय करता है पारायण ।
पाठ्यक्रम की मैंने इक अनिवार्य –
तुझको पुस्तक सा पढ़ा है रे ॥
कोसता हूँ क्यों सतत वह क्षण ?
जब हुआ तुझ पर हृदय अर्पण ।
प्रेम मेरा तुझको अस्वीकार्य –
पर तेरा मुझ सिर चढ़ा है रे ॥
ढाल का सुंदर मेरी कण-कण ।
तू ही करता था मेरा यों पण ।
क्यों हुआ अब मैं तुझे परिहार्य ?
तूने ख़ुद मुझको गढ़ा है रे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, January 26, 2015
अकविता (14) - सतत अनुसंधान ,शोध ,खोज ,तलाश
अभी तो हम चेतन हैं ।
यदि पहले से ही हमें पता हो
हमारी मौत का दिन ।
हमें पता हो कब होने वाला है
हमारा अपमान ?
हम जिस परीक्षा में बैठने वाले हैं
उसमें क्या पूछा जाने वाला है ?
क्या चल रहा है दूसरों के मन में ?
वह सब जान सकें चुटकी बजाते ही
जो जो भी हम जानना चाहें ।
प्रश्न यह है कि –
यदि यह सब संभव हो जाए तो क्या होगा ?
यदि हम सब यह मान बैठें या
सचमुच ही यही सच होता भी हो कि -
जब जब जो जो होता है
तब तब वो वो ही होता ही है ।
तो फिर हमें क्यों रह
जाएगी
कुछ भी करने की आवश्यकता ?
हमें करना भी चाहिए क्यों कुछ ?
हमारे जीवन का क्या उद्देश्य होगा
यदि सब कुछ पूर्व निर्धारित है तो ?
क्या अज्ञात के प्रति जिज्ञासा ही
जीवन का आनंद नहीं है ?
संघर्ष ही गति का कारण नहीं है क्या ?
लगता है
हमें निरंतर चलायमान बनाए रखने का
अनिवार्य कारण है -
सतत अनुसंधान , शोध , खोज , तलाश ।
अन्यथा क्या हम जड़ न हो जाएंगे ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति Sunday, January 25, 2015
गीत (17) : बोलो अब तक किसने देखे ?
बोलो अब तक किसने देखे ?
जितने सर पर केश तुम्हारे ।
नीलगगन में जितने तारे ।
स्वप्न सुनहरे लेकर तुमको -
मैंने गिनकर इतने देखे ॥
गहन उदधि कभी तुंग हिमाचल ।
कभी अगन तुम कभी बरफ-जल ।
समय-समय पर रूप तुम्हारे -
मैंने नाना कितने देखे ?
देखे तो मैंने कई सारे ।
जग में न्यारे-न्यारे प्यारे
।
उनमें तुमसे अधिक न पाया -
मैंने सुंदर जितने देखे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, January 23, 2015
अकविता (13) - मेरे काव्य-कर्म का मूल उद्देश्य
किन्तु मेरे लिए
न जाने क्यों ?
किन्तु एक व्यसन है – कविता ।
लिख लेने के बाद
मुझे असीम शांति मिलती है ।
इसका दूसरा कोई पाठक नहीं होता ।
मैं स्वयं पढ-पढ़कर आत्ममुदित होता हूँ ।
और हाँ –
जो यह कहते हैं
यह फ़ालतू लोगों का
एक फ़ालतू काम है
उन्हे सूचित हो –
मेरी तो यह टाइम-पास की कमाई है ।
कैसे ?
मैं बिना नींद की गोली खाये
मात्र एक कविता लिखकर
घोड़े बेचकर सो जाता हूँ ।
इसी तरह तैयार हो रहा है –
नशे-नशे में ,
मजे-मजे में ,
मेरे काव्य-संग्रह का माल ।
और एक दिन
छपेंगे एक के बाद एक
संग्रह पे संग्रह मेरे
जिन्हे बाटूँगा सबको
चाय नाश्ते के साथ
बिलकुल मुफ़्त में ।
पढ़ने के लिए नहीं ,
वैसे भी पढ़ता कौन है ?
घर ले जाकर सब पटक ही तो देते हैं
एक कोने में ।
निमंत्रण पत्रों की तरह -
पढ़लें तो पढ़ भी लें ।
एक बात तय है
मैं कवि तो हूँ ही –
किन्तु मुझे कवि कहलाना भी है
अतः प्रकाशन-विमोचन के पश्चात
संग्रहों की मोटाई और संख्या के हिसाब से
मैं छोटे या बड़े कवि की संज्ञा पा ही लूँगा ।
यही तो मेरे काव्य-कर्म का मूल उद्देश्य है ।
मैं कोई फ़ालतू काम नहीं करता ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, January 22, 2015
मुक्तक : 664 - शत्रु क्या दुख से
शत्रु क्या दुख से मेरा मारा
मिला ।।
जैसे जो चाहा था वह सारा मिला ।।
कम न होता था जो , उसको देखकर ,
मुझको मेरे दुख से छुटकारा मिला ।।
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
Wednesday, January 21, 2015
अकविता (12) -मुझे सब उल्टा लगता है
मैं
वहाँ भी
अरे जिसका नाम तक लेने से
लोग डरते हैं
हर्ष पूर्वक
सदा सदा के लिए
चलने को ,
बसने को तैयार हूँ
क्या तो कहते हैं उसे ?
हाँ ! नर्क ।
क्योंकि मैं जानता हूँ
मेरा अनुभव है
सम्पूर्ण विश्वास है
मुझे सब उल्टा लगता है
जैसे -
तपन ठंडी ,
काँटे फूल ,
पीड़ा आनंद ,
जब तुम साथ होती हो ।
तो फिर निश्चय ही
क्यों न
नर्क भी स्वर्ग लगेगा ?
बोलो-बोलो !
अकेले नहीं ।
तुम्हारे बिन भी तो सब उल्टा लगता है
जैसे
ठंडी तपन ,
फूल काँटे ,
आनंद पीड़ा ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, January 20, 2015
मुक्तक : 663 - रहा हूँ उसके बहुत साथ
रहा हूँ उसके बहुत साथ मैं न कम लेकिन ॥
किए हैं उसने कई मुझपे हाँ करम लेकिन ॥
यकीं तो आए कि मेरा कभी वो था कि नहीं ,
करूँ तभी तो बिछड़ने का उससे ग़म लेकिन ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Monday, January 19, 2015
मुक्तक : 662 - क्या इसलिए कि आस्माँ
क्या
इसलिए कि आस्माँ से औंधा गिरा हूँ ?
सब जिस्म
पुर्जा-पुर्जा मगर टुक न मरा हूँ !
अपने
ही आस-पास हैं मेरे तो वलेकिन ,
क्यों
लग रहा है दुश्मनों के बीच घिरा हूँ ?
-डॉ.
हीरालाल प्रजापति
Sunday, January 18, 2015
मुक्तक : 661 - बेकार है , ख़राब है
बेकार है , ख़राब है , बहुत ग़लीज़ है
॥
उसके लिए है सस्ती मुफ़्त जैसी चीज़ है ॥
बेशक़ नहीं हो मेरी ख़ुशगवार ज़िंदगी ,
मुझको मगर बहुत बहुत बहुत अज़ीज़ है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मुक्तक : 660 - मैं न जानूँ क़ायदा क्या है
मैं न जानूँ क़ायदा क्या है ,अदब क्या ?
सीखकर भी फ़ायदा है और अब क्या
?
पाँव दोनों क़ब्र में लटके न जानूँ
,
हादसा हो जाए मेरे साथ कब क्या
?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, January 16, 2015
अकविता (11) - उसे कितना ख़्याल है
उसे कितना ख़्याल है
हमारी आँखों के स्वाद का ।
आज मैंने जाना ।
जबकि उसे देखा
उजाले में ,
दरारों से छिपकर ।
वह सब जो वह लादे रहती थी
निर्धन होकर भी
सर्वथा नकली , सस्ते ढेरों अलंकार -
जो उसके चेहरे को प्रकट करने के बजाय
विलुप्तप्राय करते रहते थे
छटपटाकर
सिर के पहाड़ की तरह पटकते हुए ,
फोड़े के मवाद की तरह मसकते हुए ।
मैंने पाया
यदि वह
बिना आभूषणों के हमारे सामने पड़ जाए
तो उबकाई रोके न रुके
यह जानकर
मुझे उसकी आभूषण लादे रहने की विवशता पर
जिसे मैं अब तक उसका शौक समझकर
उसका तिरस्कार करता रहा था
घृणा उगलता रहा था
आज असीम श्रद्धा उमड़ आई ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Subscribe to:
Posts (Atom)
मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
