पेड़ हरा औ’ भरा
भी सूखी
डाली सा लगता ॥
इक तू न हो तो सारा मेला
खाली सा लगता ॥
तू जो चले सँग तो काँटों की
चुभन भली लगती ।
तू जो साथ खाए तो नीम
मिसरी की डली लगती ।
तुझ बिन अपनी ईद मुहर्रम
जैसी होती है –
तू हो तो होलिका-दहन
दीवाली सा लगता ॥
झर-झर बहती रहतीं , रहतीं
तनिक नहीं सूखी ।
जब तेरे दर्शन को अँखियाँ
हो जातीं भूखी ।
मुझको थाल सुनहरा लगने
लगता है सूरज –
चाँद चमकती चाँदी वाली
थाली सा लगता ॥
केवल क़द-काठी तक मेरा
हृदय आँकते हो ।
रहन-सहन पहनावा भी तुम
व्यर्थ झाँकते हो ।
मेरे तल तक पहुँचो फिर
गहराई बतलाना –
नील-गगन से नद भी उथली
नाली सा लगता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-03-2015) को "मेरी कहानी,...आँखों में पानी" { चर्चा अंक-1912 } पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ! मयंक जी !
बेहद अच्छी रचना।
धन्यवाद ! कहकशाँ खान जी !
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