मैं बारिश में गुड़ सा घुलता ॥
हर्षित तो किंचित रहता हूँ ,
प्रायः ही चिंतित रहता हूँ ,
जब देखो तब लेकर सिर पर –
अब मुझसे यह भार न ढुलता ॥
चिंतन कर-कर देख लिया सब ,
मुझको यही समझ आया अब ,
लाभ न इसका यद्यपि कुछ पर –
व्यर्थ नहीं मेरी व्याकुलता ॥
गंगा जल आसव निकला रे ,
देव मेरा दानव निकला रे ,
अब भी उस पर मरता मैं यदि –
मुझ पर उसका भेद न खुलता ॥
झूठ कहें सब मैं हूँ पागल ,
हार न जाऊँ घिस-घिस मल-मल ,
सच के साबुन सच के जल से –
यह कलंक झूठा न धुलता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
बहुत सुन्दर और सार्थक रचना...
धन्यवाद ! Kailash Sharma जी !
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