ख़त हमसे तुमको यों तो लिक्खे गये तमाम
॥
लेकिन न डाकिया ना ही मिल सका हमाम
॥
लिख दी है नाम तेरे दिल के ही साथ जान ,
दिखलाएँँगे किसी दिन गर आएगा मक़ाम
॥
ताउम्र तेरे ख़त की लूँगा निहार राह ,
मत भेजना मगर तू इन्कार का पयाम ॥
मेरी दुकाँ के कुछ यूँ वो हैं ख़रीददार ,
ना मुफ़्त में ही लें कुछ ना देते पूरे दाम ॥
कहते हैं वो जो करते हैं हम ख़ुशी
से फ़ौर ,
लेकिन न मान लेना उनके हैं हम ग़ुलाम
॥
आगोश में जो बैठे बाहों में सोये ख़ूब ,
मतलब निकल गया तो लेते नहीं सलाम ॥
भूले से
पड़ गयी थी तुम पर नज़र क्या यार ,
अब तुमको
देखने का है आख़री मराम ॥
तनहाइयों में अक़्सर लेकर तेरा ख़याल ,
करते हैं
आप ही से हम आप ही क़लाम ॥
( हमाम=कबूतर ,मक़ाम=अवसर , फ़ौर=तुरंत , आख़री मराम=अंतिम
इच्छा , क़लाम=बातचीत )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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