एक सिंहिनी हो चुकी जो भेड़ थी
॥
खुरदुरेपन में भी सच नवनीत थी
।
चीख में भी पहले मृदु संगीत थी
।
एक पाटल पुष्प की वह पंखुड़ी –
दूब कोमल अब कंटीला पेड़ थी ॥
तमतमा बैठी अचानक क्या हुआ ?
मैंने उसको बस लड़कपन सा छुआ !
कह गई अक्षम्य वह अपराध था –
जो ठिठोली, इक हँसी, टुक छेड़ थी ॥
मात्र जन थी अब नगर अध्यक्ष वो
।
वर्षों के उपरांत हुई प्रत्यक्ष
वो ।
जब वो मिलकर चल पड़ी तो ये लगा
–
भेंट थी वो या कोई मुटभेड़ थी
?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
6 comments:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-12-2014) को *सूरज दादा कहाँ गए तुम* (चर्चा अंक-1841) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ! मयंक जी !
सिहिनी की दहाड़ न हो तो फिर कौन सुनेगा उसकी ...बहुत खूब!
धन्यवाद ! Kavita Rawat जी !
सुन्दर
धन्यवाद ! Onkar जी !
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