Thursday, December 31, 2015

ग़ज़ल : 176 - कुत्तों को गोश्त ताज़ा



क्या ख़ूब अंधे-बहरे , दुनिया चला रहे हैं ?
हक़दार जो सज़ा के इन्आम पा रहे हैं ॥
जलती हुई ज़मीं पर , साया न अपना करते ,
बादल समंदरों पे , जा-जा के छा रहे हैं ॥
है पेश तश्तरी में , कुत्तों को गोश्त ताज़ा ,
मुफ़्लिस उठा के जूठन , घूड़े से खा रहे हैं ॥
ये किस तरह के पहरेदारों को रख रहे हो ,
जो चोर-डाकुओं को , अपना बता रहे हैं ?
दर पे लगा के ताला , चल देते हैं कहीं वो ,
गर जान जाएँ मेहमाँ , घर उनके आ रहे हैं ॥
बेखौफ़ धीरे-धीरे , कुछ दोस्त , दोस्त के ही ,
बैठक से सोने वाले , कमरे में जा रहे हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

No comments:

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...