क्या ख़ूब अंधे-बहरे , दुनिया
चला रहे हैं ?
हक़दार जो सज़ा के इन्आम पा
रहे हैं ॥
जलती हुई ज़मीं पर , साया न
अपना करते ,
बादल समंदरों पे , जा-जा के
छा रहे हैं ॥
है पेश तश्तरी में , कुत्तों
को गोश्त ताज़ा ,
मुफ़्लिस उठा के जूठन , घूड़े
से खा रहे हैं ॥
ये किस तरह के पहरेदारों
को रख रहे हो ,
जो चोर-डाकुओं को , अपना
बता रहे हैं ?
दर पे लगा के ताला , चल देते
हैं कहीं वो ,
गर जान जाएँ मेहमाँ , घर उनके
आ रहे हैं ॥
बेखौफ़ धीरे-धीरे , कुछ दोस्त , दोस्त के ही ,
बैठक से सोने वाले , कमरे
में जा रहे हैं ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
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