Wednesday, December 30, 2015

मुक्तक : 795 - थमती न थीं




थमतीं न थीं इक ठौर पे रहतीं थीं जो चंचल ॥
नदियों सी इठलाती चला करती थीं जो कलकल ॥
क्या हो गया गहरी भरी वो झील के जैसी ,
आँखे वो बनकर रह गईं क्यों थार का मरुथल ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति


2 comments:

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31-12-2015 को चर्चा मंच पर अलविदा - 2015 { चर्चा - 2207 } में दिया जाएगा । नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ
धन्यवाद

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहतरीन और उम्दा प्रस्तुति....आपको सपरिवार नववर्ष की शुभकामनाएं...HAPPY NEW YEAR 2016...
PLAEASE VISIT MY BLOG AND SUBSCRIBE MY YOUTUBE CHANNEL FOR MY NEW SONGS.

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...