उजड़े-उजड़े रहे कब बहार हम
रहे ?
इसलिए हम न गुल सिर्फ़ ख़ार
हम रहे ॥
तुम कुम्हार हो के भी ज़र
के ज़ेवर रहे ,
बनके माटी के लौंदे सुनार
हम रहे ॥
ख़ुद पे भी एतबार अब हमें
सच नहीं ,
इतने धोख़ाधड़ी के शिकार हम
रहे ॥
मक़्बरा भी हो तो क्या है
तुम ताज हो ,
हो के मस्जिद भी उजड़ी मज़ार
हम रहे ॥
तुम हवाई जहाजों पे उड़ते
चले ,
रात-दिन बस गधों पे सवार
हम रहे ॥
तुम रहे ख़ुशनसीबी से मंज़िल
सदा ,
अपनी कमबख़्ती से रहगुज़ार
हम रहे ॥
(गुल=पुष्प ,ख़ार=काँटा ,ज़र=स्वर्ण ,ज़ेवर=आभूषण ,एतबार=विश्वास ,कमबख़्ती=दुर्भाग्य
)
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
1 comment:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-12-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2200 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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