■ चेतावनी : इस वेबसाइट पर प्रकाशित मेरी समस्त रचनाएँ पूर्णतः मौलिक हैं एवं इन पर मेरा स्वत्वाधिकार एवं प्रतिलिप्याधिकार ℗ & © है अतः किसी भी रचना को मेरी लिखित अनुमति के बिना किसी भी माध्यम में किसी भी प्रकार से प्रकाशित करना पूर्णतः ग़ैर क़ानूनी होगा । रचनाओं के साथ संलग्न चित्र स्वरचित / google search से साभार । -डॉ. हीरालाल प्रजापति
Friday, November 27, 2015
Wednesday, November 25, 2015
गीत : 40 - अलाव नहीं है ॥
चाहे धरा पे चाहे चाँद पे या अधर पर ॥
जो चाहते हैं वह न लाके दोगे तुम अगर ॥
तुम लाख कहो तुमको हमसे प्यार है मगर ,
हम समझेंगे हमसे तुम्हें लगाव नहीं है ॥
सिंगारहीन हमको देखकर अगर तुम्हें –
ऐसा लगे न सामने है कोई अप्सरा ।
सजधज के आएँ तो लगे न दिल की धड़कनें –
थम सी गई हैं या तुरंत बढ़ गईं ज़रा ।
हम मान लेंगे हममें सुंदराई तो है पर ,
टुक चुम्बकत्व या तनिक खिंचाव नहीं है ॥
छू भर दें हम अगर तुम्हें तो तुमको न लगे –
बहने लगी नसों में ख़ून की जगह पे आग ।
धर दें अधर अधर पे फिर भी तुममें रंच भी –
जो सुप्त है कि मृत है वो जाए न काम जाग ।
समझेंगे अपना व्यर्थ है यौवन ये सरासर ,
ठंडा है दहकता हुआ अलाव नहीं है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, November 21, 2015
मुक्तक : 782 - चने नहीं चबाना है ॥
लाल मिर्ची औ’ बस चने नहीं चबाना है ॥
सोने – चाँदी के पेट भरके
कौर खाना है ॥
आज रहता हूँ झोपड़ी में मैंं मगर ब ख़ुदा ,
मुझको अपने लिए कल इक महल बनाना है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Thursday, November 19, 2015
मुक्तक : 781 - मोहब्बत , इश्क़, मह्वीयत
भले नाकाम लेकिन तह-ए-दिल
से करना हर कोशिश ॥
जिसे पाना न हो मुमकिन उसी
की पालना ख़्वाहिश ॥
इसे तुम चाहे जो समझो मोहब्बत
, इश्क़, मह्वीयत ,
मेरी नज़रों में है ये ख़ुद
की ख़ुद से बेतरह रंजिश ॥
( ख़्वाहिश =इच्छा ,मोहब्बत , इश्क़ =प्रेम,प्यार ,मह्वीयत =
आसक्ति ,रंजिश= बैर )
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Tuesday, November 17, 2015
172 : ग़ज़ल - क़ातिल से मिलते हैं !!
मुसाफ़िर सारे के सारे कहाँ मंज़िल से मिलते हैं ?
सफ़ीने सब के सब कब वक़्त पे साहिल से मिलते हैं ?
मिला करते हैं लग-लग के गले भी लोग और कस-कस ,
मिलाते हाथ भी हैं सच मगर कब दिल से मिलते हैं ?
मुलाक़ातें तो अनचाहों से बारंबार हों अपनी ,
मुलाक़ातें तो अनचाहों से बारंबार हों अपनी ,
ज़माने में कभी तुमसे बहुत मुश्किल से मिलते हैं ।।
न होगा हमसा कोई दूसरा अहमक़ ख़ुदाई में ,
मिलें दानिशवरों से सब हमीं बस चिल से मिलते हैं ।।
बहुत हैरान हूँ मैं ज़िंदगी की भीख को मुर्दे ,
बढ़ाकर हाथ-बाँँहें अपने ही क़ातिल से मिलते हैं !!
मरा करते हैं सब सूरज के चुँधियाते उजालों को ,
हमीं इक टिमटिमाते तारों की झिलमिल से मिलते हैं ॥
( ख़ुदाई =संसार ; अहमक़ =मूर्ख ;दानिशवर =ज्ञानी ; सफ़ीना =नाव ; चिल =मूर्ख )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, November 15, 2015
गीत : 39 - चिथड़े-चिथड़े, टुकड़े-टुकड़े
पूर्णतः था जिसपे मैं दिन
– रात निर्भर ॥
आज अचानक दिल के दौरे से
गया मर ॥
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़
बोलूँ ?
माँगता था उससे मैं जब कुछ
कि यह दो ।
जितना जी चाहे वो कहता था
उठा लो ।
मेरे मुश्किल से भी मुश्किल
सारे मसले ,
चुटकियों में हँस के कर
देता था हल वो ।
अब कहाँ जाऊँ मैं अपने दुखड़े
लेकर ?
दिल के चिथड़े-चिथड़े, टुकड़े-टुकड़े
लेकर ?
उसके बिन आँधी में पत्ते
सा जैसा डोलूँ ॥
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़
बोलूँ ?
क्या था वो मेरे लिए कैसे
कहूँ मैं ?
उसका मरना कैसे बिन रोए
सहूँ मैं ?
मैं अगर मछली था तो वो मेरा
जल था ,
बन गया वह वाष्प अब कैसे
रहूँ मैं ?
चाल था वह मेरी मैं तो पाँव
भर था ।
मूल था वह मैं तो उसकी छाँव
भर था ।
वो ख़ुदा था मेरा किसपे राज़
खोलूँ ?
उसको मैं क्योंकर न धोख़ेबाज़
बोलूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Saturday, November 14, 2015
Friday, November 13, 2015
171 : ग़ज़ल - गोल चकरी ॥
तेरे आगे क्या मेरी औकात
ठहरी ?
राजधानी तू मैं इक क़स्बा
या नगरी ॥
यों तो हूँ मैं जिराफ़ सा
पर तेरे आगे ,
सामने ज्यों ऊँट के बैठी
हो बकरी !!
तेरे मेरे रंग में बस फ़र्क़
इतना ,
एक काला काग दूजा मृग सुनहरी
!!
तेरे चक्कर काटती फिरती
है दुनिया ,
मैं हवा से फरफराती गोल
चकरी ॥
मुझसे मत मरु की तृषा तू
कह बुझाने ,
चुल्लू भर पानी मैं तू इक झील गहरी ॥
क्या तुझे ललकार कर मरना
मुझे है ?
तू पहलवान और मैं कृशकाय-ठठरी
॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Thursday, November 12, 2015
170 : ग़ज़ल - कलाई का कड़ा था वो ॥
नगीने सा मेरे दिल की अँगूठी
में जड़ा था वो ॥
मेरे माथे की बिंदी था ,कलाई का कड़ा था वो ॥
ज़माने की निगाहों में वो
बेशक़ एक टीला था ,
मेरी नज़रों में सच ऊँचे हिमालय से बड़ा था वो ॥
उसूल अपने भी सारे तोड़कर
मेरे उसूलों को -
बचाने के लिए सारे ज़माने
से लड़ा था वो ॥
ज़रा सा मुँह से क्या निकला कि मुझ पर कौन जाँ देगा ?
हथेली पर लिए जाँ अपनी झट
आगे बढ़ा था वो ॥
मेरा ग़म भूलने हद तोड़कर पी-पी के उस दिन सच ,
नहीं सुधबुध भुलाकर बल्कि जाँ खोकर पड़ा था वो ॥
नहीं पहुँचा वहाँ जब तक उसी जा एक मुद्दत तक ,
मेरे वादे पे मिलने के किसी
बुत सा खड़ा था वो ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Wednesday, November 11, 2015
गीत : दीपावली ॥
पैर धरती पे देखो रखे बिन चली ॥
दुनिया सारी मनाने को दीपावली ॥
कानफोड़ू पटाखों की चहूँदिस धमक ।
जलती बारूद की सूर्य जैसी चमक ।
बूढ़े , शिशु और
बीमार इस शोर से ,
जब दहलते हैं भीतर से उठते बमक ।
पूछते हैं धमाकों का औचित्य वो –
जो मचा देता है शांति में खलबली ?
पैर धरती पे देखो रखे बिन चली ॥
दुनिया सारी मनाने को दीपावली ॥
तेल खाने नहीं पर जलाने बहुत ।
ज़ीरो पढ़ने नहीं जगमगाने बहुत ।
सौ के बदले जलाओ दिया एक ही ,
बल्ब इक रोशनी में नहाने बहुत ।
सोचना फिर तुम्हीं तेल कितना बचा ?
एक ही रात में कितनी बिजली जली ?
पैर धरती पे देखो रखे बिन चली ॥
दुनिया सारी मनाने को दीपावली ॥
( ज़ीरो = ज़ीरो बल्ब , बमक = चौंक पड़ना , सहम जाना )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Tuesday, November 10, 2015
169 : ग़ज़ल - मुबारक़बाद
कोई भी तूने न की ईजाद बढ़चढ़
॥
क्यों करे दुनिया तुझे फिर
याद बढ़चढ़ ?
ऐसा कुछ कर दुश्मनों को
भी ख़ुद आकर ,
देना पड़ जाए मुबारक़बाद बढ़चढ़
॥
मिट गया था अपने ही हाथों
तो अब ख़ुद ,
कर रहा है ख़ुद को वो आबाद
बढ़चढ़ ॥
है नहीं जितना वो दिखलाता
है अक़्सर ,
दुश्मनों को यह कि है वो
शाद बढ़चढ़ ॥
उस हवा जैसे परिंदे के लिए
क्यों ,
जाल बुनता है अरे सय्याद
बढ़चढ़ ?
कोई साज़िश ,कोई ख़ुदग़रज़ी है वर्ना ,
मुझको क्यों दे मेरा हामिज़
दाद बढ़चढ़ ?
(
ईजाद=आविष्कार , शाद=प्रसन्न , सय्याद=शिकारी , हामिज़=निंदक , दाद=प्रशंसा )
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Monday, November 9, 2015
168 : ग़ज़ल : गाय का बछड़ा न कहो ॥
ज़रा सी बाढ़ को तुम यों ही ज़लज़ला न कहो ॥
दिये की लौ है इसे सूर्य-चंद्रमा
न कहो ॥
जो जी में आए ख़ुशामद में याद करके कहें ,
मगर हाँ भूल के नाली को नर्मदा न कहो ॥
न पहुँचे लाख वो मंज़िल पे पर चला जो चले ,
उसे कभी भी पड़ा , ठहरा या खड़ा न कहो
॥
अभी वो शेर का शावक है दंतहीन मगर
,
गले लगा के उसे गाय का बछड़ा न कहो
॥
ये माना कब से वो खटिया पे शव के जैसा पड़ा ,
कि साँस चलती है जब तक उसे मरा न
कहो ॥
ज़माना जिसको कि इक सुर में कह रहा हो
भला ,
भले बुरा हो वो पर उसको तुम बुरा न
कहो ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
