Wednesday, September 10, 2014

151 : ग़ज़ल – ज़िंदगानी तबाह कर बैठे



ज़िंदगानी तबाह कर बैठे ।।
ख़ुदकुशी का गुनाह कर बैठे ।।1।।
हमको करना था आह-आह जहाँ ,
हम वहाँ वाह-वाह कर बैठे ।।2।।
जिसको दिल में बसा के रखना था ,
उससे टेढ़ी निगाह कर बैठे ।।3।।
अपना उजला सफ़ेद मुस्तक़्बिल ,
अपने हाथों ही स्याह कर बैठे ।।4।।
ऊबकर तीरगी से कुछ जुगनूँ ,
चाँद-सूरज की चाह कर बैठे ।।5।।
अक़्ल मारी गई थी दुश्मन से ,
दोस्ती की सलाह कर बैठे ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

2 comments:

Unknown said...

बहुत लाजवाब !!

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

धन्यवाद ! Lekhika Pari M shlok जी !

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