कभी जो फूल थी मेरी , क़लम वो शर बना बैठा ।।
जो मुझमें सोई थी सूई , जगा ख़ंजर बना बैठा ।।
न आती है हॅंसी लब को , न रोना ऑंख को आए ,
तुम्हारा बेवफ़ा होना , मुझे पत्थर बना बैठा ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
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कभी जो फूल थी मेरी , क़लम वो शर बना बैठा ।।
जो मुझमें सोई थी सूई , जगा ख़ंजर बना बैठा ।।
न आती है हॅंसी लब को , न रोना ऑंख को आए ,
तुम्हारा बेवफ़ा होना , मुझे पत्थर बना बैठा ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
जोड़कर हाथ गिड़गिड़ाने पर ,
सचमुच इसरार पे भी तब उसने ;
अपने गालों तलक को छूने का ,
मुझको मौक़ा दिया था कब उसने ?
मैं न रूठा , न मैं तुनुक बिगड़ा ,
जाने इक रोज़ क्या हुआ लफड़ा ,
आके हौले से मेरे होंठों पर ,
रख दिए थे ख़ुद अपने लब उसने !!
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
ज्यों ही हम ऊॅंची किसी मीनार से कूदें कि त्यों ,
ये सकल संसार बढ़-बढ़ लोकता है किसलिए ?
रेल की पटरी पे ज्यों ही अपना सिर रखते हैं त्यों ,
डाॅंटकर कोई न कोई टोकता है किसलिए ?
यों गहन दुख , घोर कठिनाई में जीवन आ फॅंसा ।।
जैसे दलदल में कोई हाथी समूचा जा धॅंसा ।।
घर लुटा , कपड़े फटे , रोटी छिनी फिर भी हमें ,
विष चबाने से भला जग रोकता है किसलिए ?
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
वो मिलने किसी से अरे होके पागल ।।
लगाकर घटाओं का ऑंखों में काजल ।।
चले हैं पहन काले काग़ज़ के कपड़े ,
तो बरसें , न बरसें ये सोचें वो बादल ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
मेरे मुर्दे को छूकर ज़रा देख लो ।।
है पड़ा सामने इक दफ़्आ देख लो ।।
तुम न शामिल हुए जिसकी मैयत में वो ,
था तुम्हारे लिए ही मरा देख लो ।।
तुमको पाके वो मुर्दा जो था जी उठा ,
खोके तुमको वो जिंदा जला देख लो ।।
उम्र भर साथ चलने का वादा फ़क़त ,
तोड़ दो दिन में तुमने दिया देख लो ।।
तुमने बोला था आओगे मैं उस जगह ,
राह तकता अभी तक खड़ा देख लो ।।
देखना हो जो सब्ज़ा ही चारों तरफ़ ,
बस हरा चश्मा ऑंखों लगा देख लो ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
अब समझा वो क्यों रहें , अक्सर बहुत उदास ।।
आए थे हरि भजन को , ओटन लगे कपास ।।
बनके रहे वो उम्र भर , उनकी नज़र में ख़ास ।।
लेकिन दिल में एक लम्हा , वो कर सके न वास ।।
मंदिर-मस्ज़िद आजकल , किसको आते रास ?
अब तो केवल चाहिए , उन्नति और विकास ।।
कैसे उनकी बात पर , करलूॅं मैं विश्वास ?
वो नेता होते न तो , रख भी लेता पास ।।
सच कुछ ऐसे शेर हैं , रहते हैं जो पास ।।
भूख न हो बर्दाश्त तो , वो चर लेते घास ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
इक को कोलाहल ने इक को चुप्पियों ने मार डाला ।।
इक मरा भजनों से इक को गालियों ने मार डाला ।।
हैं कई जो पूर्णिमा को चंद्र किरणों से मरे सच ,
कुछ को प्रातः काल की रवि रश्मियों ने मार डाला ।।
लोग प्रायः बर्छियों से होते हैं घायल सुना था ,
पर उसे रक्तिम गुलाबी पत्तियों ने मार डाला ।।
पृथ्वीवासी इक गगन प्रेमी था इक पाताल पूजक ,
पर्वतों ने इक को , इक को खाइयों ने मार डाला ।।
एक बॅंटवारे को लेकर गाॅंव के कुछ भाइयों को ,
उनके अपने ही सगे कुछ भाइयों ने मार डाला ।।
साॅंप-बिच्छू पालने वाले को इक दिन जाने क्यों पर ,
घोर अचरज बाग की कुछ तितलियों ने मार डाला ।।
मात्र इक बंदर के बहकावे में आकर दिन दहाड़े ,
इक महावत को बहुत से हाथियों ने मार डाला ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
यों वो ज़िंदगी में मेरी कब न था ?
मगर ये भी है वो ही वो सब न था ।।
चलाता था जो हुक़्म मुझ पर मेरा ,
वो मेहबूब था मेरा साहब न था !!
ये क़ब्ज़ा जो उसका मेरे दिल पे है ,
मिला था वो पहली दफ़्आ तब न था ।।
दिल-ओ-जाॅं से करता था मैं प्यार उसे ,
था सब कुछ वो मेरा मगर रब न था ।।
अगर चाहता चाह लेता उसे ,
बदन इतना भी उसका बेढब न था ।।
न मतलब रखा उसने मुझसे कभी ,
उसे जब तलक मुझसे मतलब न था ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
बात बेबात देखभाल यार मारे है ।।
जिस्म मेरा छुए न दिल पे मार मारे है ।।
क्यों न मैं उसका नाम मौत आज से रख दूॅं ,
वो मुझे रोज़-रोज़ बार-बार मारे है ।।
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
मेरे बिन ज्यों उदासी में वो अब डूबा नहीं रहता ।।
तो मैं भी उसकी फुर्क़त में मरे जैसा नहीं रहता ।।
मेरे कदमों की ऑंखें अपनी मंज़िल पर लगीं रहतीं ,
नहीं है पैर तो क्या मैं कभी बैठा नहीं रहता ।।
हथौड़े मारते रहती है दुनिया मेरे दिल पर ; पर ,
ये जुड़ जाता है फ़ौरन बाख़ुदा टूटा नहीं रहता ।।
ये कहते हैं कि जिसने चोंच दी चुन भी वही देगा ,
जहां कैसा भी हो कोई कभी भूखा नहीं रहता ।।
अगर दिन-रात , सुब्हो शाम ग़म ही ग़म मिलें तो फिर ,
कोई मग़्मूम ज़्यादा दिन तक अफ़्सुर्दा नहीं रहता ।।
न रोज़ी का ठिकाना है न घर बस इसलिए घूमें ,
कोई यों ही तो सारी उम्र बंजारा नहीं रहता ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
( फ़ुर्क़त=वियोग / मरे=लाश / बाख़ुदा=ईश्वर की सौगंध / चुन=अन्न कण या भोजन /मग़्मूम=दुखी / अफ़्सुर्दा=उदास / बंजारा=खानाबदोश )
आ गया हूॅं तुझपे मरने ।।
या'नी सच्चा प्यार करने ।।
हाॅं तेरी यादों में पहले ,
ऑंखों से गिरते थे झरने ।।
तू बनाले अपने घर का ,
मुझको नौकर पानी भरने ।।
तब भी करता बातें इल्मी ,
जब गई हो अक़्ल चरने ।।
कुछ न कुछ हर वक़्त उठाने ,
या लगा रहता हूॅं धरने ।।
अब चला हूॅं क़ब्र में मैं ,
पाॅंव लटकाकर सुधरने ।।
सब सही है पर लगी क्यों ,
ज़िन्दगी अब कुछ अखरने ?
-डाॅ. हीरालाल प्रजापति
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...