■ चेतावनी : इस वेबसाइट पर प्रकाशित मेरी समस्त रचनाएँ पूर्णतः मौलिक हैं एवं इन पर मेरा स्वत्वाधिकार एवं प्रतिलिप्याधिकार ℗ & © है अतः किसी भी रचना को मेरी लिखित अनुमति के बिना किसी भी माध्यम में किसी भी प्रकार से प्रकाशित करना पूर्णतः ग़ैर क़ानूनी होगा । रचनाओं के साथ संलग्न चित्र स्वरचित / google search से साभार । -डॉ. हीरालाल प्रजापति
Sunday, January 31, 2016
Wednesday, January 27, 2016
Tuesday, January 26, 2016
मुक्तक : 800 - ठंडों में गरम कम्बल देना ॥
जब प्यास से गर्मी में तड़पूँ
,
तब शीतल-शीतल जल देना ॥
तुम भेंट के इच्छुक हो तो
मुझे ,
ठंडों में गरम कम्बल देना
॥
उपहार वही मन भाता है जो
,
हमको आवश्यक होता है ;
अतएव मेरी तुम चाह समझ -
वह आज नहीं तो कल देना ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Sunday, January 24, 2016
गीत : 41 - मैं क्यों कवि बन बैठा ?
कई प्रश्न स्वयं के अनुत्तरित –
इक यह कि मैं क्यों कवि बन बैठा ?
बाहर चहुंदिस वह चकाचौंध ।
आकाश-तड़ित सी महाकौंध ।
प्रत्येक उजालों का रागी ,
जुगनूँ तक पे सब रहे औंध ।
यद्यपि मैं पुजारी था तम का ,
क्या सोच के मैं रवि बन बैठा ?
नकली से सदा अति घृणा रखी ।
परछाईं स्वयं की भी न लखी ।
झूठों से बराबर बैर रहा ,
कभी भूल न पाप की वस्तु चखी ।
क्या घटित हुआ कि मैं जीवित ही ,
कहीं मूर्ति कहीं छवि बन बैठा ?
कब धर्म पे था विश्वास मुझे ?
कब होम-हवन था रास मुझे ?
जप-तप-पूजन लगते थे ढोंग ,
लगते थे व्यर्थ उपवास मुझे ।
क्यों यज्ञ में तेरी सफलता के ,
मैं स्वयं पूर्ण हवि बन बैठा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, January 20, 2016
Sunday, January 17, 2016
ग़ज़ल : 179 - पिलाने का हुनर ॥
प्यास को पानी बिना हमने बुझाने का हुनर ॥
ग़मज़दा रह-रह के सीखा मुस्कुराने का हुनर ॥
पाके खो देने के फ़न में सब ही हैं माहिर यहाँ ,
इश्क़ ने हमको बताया खो के पाने का हुनर ॥
सब ही पीते हैं शराबें ढालकर
इक जाम में ,
उसने आँखों से दिखाया है
पिलाने का हुनर ॥
सब कमाना चाहते हैं हाँ मगर अफ़्सोस ये ,
सब को कब आता है दुनिया में कमाने का हुनर ?
मत कुछ ऐसा कर कि अपने मानकर चल दें बुरा ,
रूठना आसाँ है मुश्किल है मनाने का हुनर ॥
अब मोहब्बत की तिजारत में है लाज़िम सीखना ,
बेवफ़ाओं को तहेदिल से भुलाने का हुनर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
Wednesday, January 13, 2016
Tuesday, January 12, 2016
Monday, January 4, 2016
ग़ज़ल : 178 - नाच मटक-टूट गए ॥
तुम जनाज़ों को काँधा देते सटक-टूट गए ।।
हम बरातों में नाच-नाच मटक-टूट गए ।।1।।
हम जो लोहा थे मेरी जान वो शीशे की तरह ,
तेरे जाने के बाद फूट चटक-टूट गए ।।2।।
मंज़िलें तेरी रहनुमाई में जो की थीं फतह ,
अपनी अगुवाई में वो भूल भटक-टूट गए ।।3।।
भूलकर भी कभी नहीं थे जो बीमार हुए ,
इश्क़ में पड़ बुरी तरह से झटक-टूट गए ।।4।।
मुँह से गाली ख़ुद अपने बच्चों के सुन अपने लिए ,
सर को पत्थर पे नारियल सा पटक-टूट गए ।।5।।
पूरा हाथी निकलने तक वो सलामत थे मगर ,
इक अकेली गई जो पूँछ अटक-टूट गए ।।6।।
हाँ , ज़मीं पर भी पैर रखने जगह जब न मिली ,
लोग चमगादड़ों के जैसे लटक-टूट गए ।।7।।
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
Sunday, January 3, 2016
ग़ज़ल : 177 - छूट-छूट के ॥
जो दिल में मेरे ग़म भरा है कूट-कूट
के ॥
रो-रो
उसे निकाल दूँगा फूट-फूट
के ॥1।।
मेरा
तो क्या किसी का हो सके न
जो कभी ,
मेरा
उसी से दिल लगा रे टूट-टूट
के ॥2।।
मुश्किल से हाथ आए थे जो मुझको
काट-काट ,
सब फड़फड़ा
उड़े वो तोते छूट-छूट
के ॥3।।
जो-जो
जमा किया था बैरी सब तो
ले गया ,
कुछ माँग-माँग
के तो कुछ को लूट-लूट
के ॥4।।
मत पूछ
जबसे मैं जुड़ा हूँ उससे किस क़दर ,
करता
हूँ एक तरफ़ा प्यार टूट-टूट
के ?5।।
कब तक
जिऊँगा रोज़-रोज़ इस तरह अगर ,
याद उसकी आएगी गले को घूट-घूट
के ?6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापतिFriday, January 1, 2016
Subscribe to:
Posts (Atom)
मुक्तक : 948 - अदम आबाद
मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...
