Friday, September 19, 2014

मुक्तक : 605 - कुछ जी भर कुछ


कुछ जी भर कुछ नाम मात्र को भोग लगाते हैं ॥
मूरख क्या ज्ञानी से ज्ञानी लोग लगाते हैं ॥
खुल्लमखुल्ला, लुक-छिपकर, चाहे या अनचाहे,
किन्तु सभी यौवन में प्रेम का रोग लगाते हैं ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, September 18, 2014

मुक्तक : 604 - निपट गंजों के लिए



चाँद से गंजों को काले विग घने ॥
दंतहीनों वास्ते डेंचर बने ॥
उड़ नहीं सकते मगर हों पीठ पर ,
पर शुतुरमुर्गों के शायद देखने ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Wednesday, September 17, 2014

मुक्तक : 603 - बेझिझक बाहों में ले


बेझिझक बाहों में ले मुझको जकड़ना क्या हुआ ?
सारी दुनिया से मेरी ख़ातिर झगड़ना क्या हुआ ?
मेरी छोटी सी ख़ुशी के वास्ते लंबी दुआ ,
पीर की चौखट पे वो माथा रगड़ना क्या हुआ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

मुक्तक : 602 - दिल के बाशिंदों से


दिल के बाशिंदों से मुँह मोड़ आये
जाने किस-किस के दिल को तोड़ आये ?
जुड़ के रहने का जिनसे वादा था ,
उनसे हर एक रिश्ता तोड़ आये
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Tuesday, September 16, 2014

मुक्तक : 601 - रातें हों, दिन हों



रातें हों, दिन हों, शामें हों या दोपहर, सवेरे ॥
डाले रखते हैं मेरे घर मेहमाँ अक्सर डेरे ॥
रहने के अंदाज़ भी उनके बिलकुल ऐसे हैं सच ,
यूँ लगता है मैं हूँ मेहमाँ वो घर-मालिक मेरे ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Monday, September 15, 2014

मुक्तक : 600 - छः को छः


छह को छह , सत्ते को बोले सात वह
दिन को दिन , रातों को बोले रात वह
कैसे मानूँ है नशे में चूर फिर ,
कर रहा जब होश की हर बात वह ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Sunday, September 14, 2014

मुक्तक : 599 - मुँह से ज़रा सी रोशनी


मुँह से ज़रा सी रोशनी की बात थी निकली ॥
उसने गिरा दी हम पे कड़कड़ाती ही बिजली ॥
झोली में गिद्ध, चील, बाज़झट से ला पटके ,
चाही जो हमने इक ज़रा-सी प्यारी-सी तितली ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Saturday, September 13, 2014

मुक्तक : 598 - कहा करते हैं लो


कहा करते हैं लो इस हाथ उस से दो मोहब्बत ॥
हक़ीक़त में मगर जाने न क्या ये हो मोहब्बत ॥
नफ़ा-नुक़्सान का करके ख़याल अब के जहाँ में ,
तिजारत की तरह करते हैं लोग इश्क़ो-मोहब्बत ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

मुक्तक : 597 - यहाँ क्या और वहाँ क्या


यहाँ क्या और वहाँ क्या हर जगह पर याद आता है ॥
नहीं रुक - रुक के वो मुझको निरंतर याद आता है ॥
रहा करते थे जब उसमें तब उसकी क़द्र ना जानी ,
कि घर से दूर होकर अब बहुत घर याद आता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Friday, September 12, 2014

मुक्तक : 596 - उनसे मिलने मैं


उनसे मिलने मैं ख़ुद से छूट-छूट जाता हूँ ॥
उनसे जुड़ने को अपने आप टूट जाता हूँ ॥
मुझसे सचमुच में वो जो रूठ जाएँ तो उनसे ,
मैं मनाने को झूठ-मूठ रूठ जाता हूँ ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति 

Thursday, September 11, 2014

मुक्तक : 595 - अपना मजहब छोड़


अपना मजहब छोड़ तेरा अपने सर मजहब किया
रब को रब ना मानकर तुझको ही अपना रब किया
होश में हरगिज़ करते जो वो बढ़-बढ़ शौक़ से ,
हमने तेरे इश्क़ की दीवानगी में सब किया
-डॉ. हीरालाल प्रजापति

Wednesday, September 10, 2014

151 : ग़ज़ल – ज़िंदगानी तबाह कर बैठे



ज़िंदगानी तबाह कर बैठे ।।
ख़ुदकुशी का गुनाह कर बैठे ।।1।।
हमको करना था आह-आह जहाँ ,
हम वहाँ वाह-वाह कर बैठे ।।2।।
जिसको दिल में बसा के रखना था ,
उससे टेढ़ी निगाह कर बैठे ।।3।।
अपना उजला सफ़ेद मुस्तक़्बिल ,
अपने हाथों ही स्याह कर बैठे ।।4।।
ऊबकर तीरगी से कुछ जुगनूँ ,
चाँद-सूरज की चाह कर बैठे ।।5।।
अक़्ल मारी गई थी दुश्मन से ,
दोस्ती की सलाह कर बैठे ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति  

मुक्तक : 948 - अदम आबाद

मत ज़रा रोको अदम आबाद जाने दो ।। हमको उनके साथ फ़ौरन शाद जाने दो ।। उनसे वादा था हमारा साथ मरने का , कम से कम जाने के उनके बाद जाने दो ...