लगा के बाग़ उजाड़ा , ये बात ठीक न की ॥
बना-बना के बिगाड़ा , ये बात ठीक न की ॥
जगाने मुझको तू आया तो बाँग देता मगर ,
तू कान में ही दहाड़ा , ये बात ठीक न की ॥
पड़ा ही रहने दिया होता था मैं खंभा अगर ,
गड़ा के फिर से उखाड़ा , ये बात ठीक न की ॥
अदू जो मुझको गिराते तो सच न होती कसक ,
सगे सगों ने पछाड़ा , ये बात ठीक न की ॥
ख़ता पे मुझको बुज़ुर्गों ने डांट ठीक किया ,
जो बच्चों ने भी लताड़ा , ये बात ठीक न की ॥
बग़ैर मेरे बुलाए फटे में ये क्या किया ?
अड़ा के टाँग कबाड़ा , ये बात ठीक न की ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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